वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 4
From जैनकोष
यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियदूदरवर्तिनी।
यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्द्धे किं स सीदति।।४।।
शान्तिबललाभ के लिये क्लेशों के सिलसिला की सुध—संसार में नाना प्रकार के क्लेश भरे हुए है। किसी भव में जावो, किसी पद में रहो, संसार के सभी स्थानोंमें क्लेश ही क्लेश है। कोई धनी हो तो वह भी जानता है कि मुझे सारे क्लेश ही क्लेश है, बाह्यपदार्थों की रक्षा, चिन्ता जो अपने वश की बात नही है उसे अपने वश की बात बनाने का संकल्प, इस मिथ्याश्रय में क्लेश ही क्लेश है। कोई धनी न हो, निर्धन हो तो वह भी ऐसा जानता है कि मुझे क्लेश ही क्लेश है। कोई संतान वाला है तो वह भी कुछ समय बाद समझ लेता है कि इन समागमों में भी क्लेश ही क्लेश है। न हो कोई संतान तो वह भी अपने में दुख मानता है कि मुझे बहुत क्लेश है। तब और कौन सी स्थिति ऐसी है जहाँ क्लेश न हो? संसार में है कुछ ऐसा जो लोग देश के नेता हो जाते हैं अथवा ऊँचे अधिकारी हो जाते हैं उनके भी संकटों को देख लो, वे कितनी बेचैनी में रहते हैं।संसार की किसी भी दशा में चैन नही है। ऐसा जानकर अपने को यों ही समझो कि जब यह संसार की दशा है तो इसमें ऐसा होना ही है। दुःख आयें तो उनमें क्या घबड़ाना?
कष्ट में यथार्थ सुध से कष्ट सहिष्णुता का लाभ—एक कोई सेठ था, उसे किसी अपराध में जेल कर दी गयी। अब जेल में तो चक्की पीसनी पड़ती है। जेल में उस सेठ को सब कुछ करना पड़े तो सेठ सोचता है कि कहाँ तो मैं गद्दा तक्की पर बैठा रहा करता था, आज इतने काम करने पडते हैं। वह बहुत दुःखी हो रहे। इसी तरह सोच-सोचकर वह सदा दुःखी रहा करे। तो एक कोई समझदार कैदी था, उसने समझाया कि सेठ जी यह बतावो कि इस समय तुम कहाँ हो? बोला जेल मे। तो जेल में और घर में कुछ अन्तर है क्या ? हाँ अन्तर है। यहाँ जेल में सब कुछ करना पड़ता है और वहाँ आराम भोगना होता है। तो सेठ जी अब वहाँ का नाता न समझो, अब अपने को यहाँ सेठ न समझो। यह तो जेल है, ससुराल नही है। जेल में तो ऐसा ही काम करना होता है। समझ में कुछ लगा और उसे दुःख कम हो गया। ऐसे ही कितने ही संकट आये, यह समझो कि यह संसार तो संकट से भरा हुआ है। यहाँ तो संकट मिला ही करते हैं। इतनी भर समझ होने पर सब संकट हल्के हो जाते हैं। और जहाँ यह जाना कि यह आया मुझ पर संकट तो इस प्रकार की अनुभूति से संकट बढ़ जाते हैं।
संकट मुक्ति का उपाय—समस्त संकटो के मेटने का उपाय क्या है? लोग बहुत उपाय कर रहे हैं संकट मेटने का, कोई धन कमाकर, कोई परिवार जोड़कर, कोई कुछ करके, किन्तु जैसे ये प्रयत्न बढ़ रहे हैं वैसे ही दुःख और बढ़ते जा रहे हैं। सच बात तो यह है कि संकट मेटने का उपाय बाह्य वस्तु का उपयोग नही है। अपना मुख्य काम है अपने को ज्ञान और आनन्दस्वरूप मानना। यह शरीर भी मैं नही हूँ—ये विचार विकल्प जो कुछ मन में भरे हुए है। ये भी में नही हूं मैं केवल ज्ञानानन्दस्वरूप हूं। इस प्रकार अपने आपकी प्रतीति हो तो शान्ति का मार्ग मिलेगा। बाह्य पदार्थों का उपयोग होने से आनन्द नही मिल सकता है।
आनन्द विकास के पथ में व्यवहार और निश्चय पद्धति—उस यथार्थ आनन्द को प्रकट करने के लिए दो पद्धतियों को लिया जाना चाहिए—एक व्यवहार पद्धति और एक निश्चय पद्धति। जैसे हिंसा झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह का त्याग कर देते हैं,और भी मन, वचन, कायकी शुभ प्रवृत्तियाँ कर रहे हैं ये सब व्यवहार पद्धति की बातें है। निश्चय पद्धति में अपने आपके सहजस्वरूप का ही अवलोकन है। इन दो बातों में से उत्कृष्ट बात अपने आत्मा के सहज स्वभाव के परख की है, इसमें जो अपना परिणाम लगाते हैं।उन्हें जब मोक्ष मिल जाता है इन परिणामो से तो इससे स्वर्ग मिल जाय तो यह आश्चर्य की बात नही है। जो मनुष्य किसी भार को अपनी इच्छा से, बहुत ही सुगमता और शीघ्रता से दो कोश तक ले जाता है वह उस भार को आधा कोश ले जाने में क्या खेद मानता है? वह तो उस आधा कोश को गिनती में ही नहीं लेता है, शीघ्र उस भार को ले जाता है। यों ही जिस भाव में मोक्ष प्राप्त करा देने की सामर्थ्य है वह कौन सा भाव है जिस भाव पर दृष्टि देने से स्वर्ग भी मिल जाता है और मोक्ष भी मिलता है? अपने-अपने पद और योग्यता के अनुरूप वह भाव है अपने आपकी सच्ची परख। जो पुरुष अपनी परख नही कर पाते वे कितनी ही लोक चतुराई कर लें पर शांति नही मिल सकती। इस तरह सबसे पहिले अपनी सच्ची श्रद्धा करना जरूरी है मैं पुरुष हूं, मैं स्त्री हूं, मैं अमुक की चाची हूं, अमुक की मां हूं, अमुक का चाचा हूं, इत्यादि किसी भी प्रकार की अपने में जो श्रद्धा बसा रक्खी है उसका फल क्लेश ही है। कहाँ तो अपने भगवान तक पहुंचना था और कहाँ इस शरीर पर ही दृष्टि रख रहे हैं।
दृष्टिकी परख—एक राजसभा में बडे़-बडे़ विद्वान आये थे। वहाँ एक ऋषि पहुंचा जिसके हाथ पैर, पीठ, कमर सभी टेढ़े थे और कुरूप भी था। वह व्याख्यान देने खड़ा हुआ तो वहाँ बैठे हुए जो पंडित लोग थे वे कुछ हँसने लगे क्योंकि सारा अंग टेढ़ा था। वह विद्वान ऋषि उन पंडितों को सम्बोधन करके बोला—हे चमारो ! सब लोग सुनकर दंग रह गये कि यह तो हम सभी लोगों को चमार कहते हैं। खैर, वह स्वयं ही विवरण करने लगा। चमार उसे कहते हैं जो चमड़े की अच्छी परख कर लेता है, तो यहाँ आप जितने लोग मौजूद हैं सब लोग हमारे चमड़े की परख कर रहे हैं। आप लोग हमारे शरीर का चमड़ा निरख कर हंस रहे हैं,तो जो चमड़े की परख करना जाने कि कौनसा अच्छा चमड़ा है और कौन सा खराब चमड़ा है उसका ही तो नाम चमार है। तो सभी लोग लज्जित हुए? अब अपनी-अपनी बात देखो कि हम चमड़े की कितनी परख करते हैं और आत्मा की कितनी परख करते है? इसमें कुछ डर की बात नही है, अगर चमड़े की हम ज्यादा परख करते हैं तो हम कौन है? कह डालो अपने आपको कुछ हर्ज नही है। खुद ही कहने-कहने वाले और खुद को ही कहने जा रहे हैं,खूब दृष्टि पसारकर देखो कि हम कितना चमड़े की परख में रहा करते है? यह मैं हूं, यह स्त्री है, यह पुत्र है, इस चाम की चाम को देखकर व्यवहार में बसे हुए जो जीव हैं उन्हें ही सब कुछ माना करते हैं,उस जानने देखने, चेतने वाले को दृष्टि में लेकर कोई नही कहता है। जो मिल गया झट पहिचान गये कि यह मेरे चाचा का लड़का है। इस तरह से सभी जीव इस चमड़े की परख करते रहते हैं,इसका ही तो इन्हें दुःख है।
शुद्ध परिणाम की सामर्थ्य—भैया ! हम आप सभी इसी बात में आनन्द मानते हैं कि खूब धन बढ़ गया, खूब परिवार बढ़ गया पर जिस भाव में आनन्द है उसका अज्ञानियों को पता ही नही है। ज्ञानियो को स्पष्ट दीखता है कि सच्चा आनन्द तो इससे ही मिलेगा। वह भाव है एक ज्ञान प्रकाश अमूर्त किसी भी दूसरे जीव से जिसका रंच सम्बन्ध नही, ऐसा यह मैं केवल शुद्ध प्रकाशात्मक हूं, ऐसे ज्ञानस्वभाव में परिणाम जाय तो यह परिणाम मोक्ष को देता है, फिर स्वर्ग तो कितनी दूर की बात रही, अर्थात वह तो निकट और अवश्यंभावी है। जो मनुष्य बलशाली होता है वह सब कुछ कर सकता है। सुगम और दुर्गम सभी कार्यों को सहज ही सम्पन्न कर सकता है। कौन पुरुष ऐसा है जो कठिन कार्यों के करने की तो सामर्थ्य रखता हो और सुगम कार्यों के करने की सामर्थ्य न रखता हो। वह अपने आपमें अपनी शक्ति को खूब समझता है। उसके लिए सभी कार्य दुर्गम अथवा सुगम हो, सरल होते हैं।
महती निधि से अल्पलाभ की अतिसुगमता—जैसे कोई बोझा उठाने में बलशाली है तो वह छोटा बोझा उठाने में कुछ असुविधा नही मानता है, ऐसे ही जिस शुद्ध आत्मा के भाव में भव-भव के बांधे हुए कर्म कालिमा को भी जलाने की सामर्थ्य है, स्वात्मा की प्राप्ति करने की सामर्थ्य है उससे स्वर्ग आदिक सुख प्राप्त हो जायें इसमें कौन सी कठिनाई है? किसान लोग अनाज पैदा करने के लिए खेती करते हैं तो उद्यम तो कर रहे हैं धान और अनाज को पैदा करने का और भूसाउन्हें अनायास ही मिल जाता है। कोई खाली भूसा के लिए खेती करता है क्या? अरे भुसा तो स्वयं ही मिल जाता है। तो जिसका जो मुख्य प्रयोजन है वह अपने कार्य में उसी का ही ध्यान रखता है, बाकी सब कुछ तो अनायास ही होता है, इसी तरह जिसके भेदाभ्यास में इतना बल है कि उसकी तपस्या से भव-भव के संचित कर्म क्षणमात्र में ध्वस्त हो जाते हैं,तो उस तपस्या के प्रसाद से ये संसार के सुख मिल जाना यह तो कुछ दुर्लभ ही नही है।
व्रत का लाभ—आत्मीय जो सत्य आनन्द है उसकी प्राप्ति में उत्तम द्रव्य मिलना, उत्तम क्षेत्र, उत्तम काल और उत्तम भाव मिलना, जब ऐसी योग्य सामग्री मिलती है तो उसकी उस शक्ति से मोक्ष रूप महान् कार्य उत्पन्न हो जाता है फिर उससे स्वर्ग मिल जाये तो कौनसा आश्चर्य है, किन्तु अल्प शक्ति वाले व्रत का आचरण करें तो उसे स्वर्ग सुख ही मिल सकता है मोक्ष का आनन्द नही। इससे ज्ञानी पुरुषों को आत्मा की भक्ति, प्रभु की भक्ति करनी चाहिए, समस्त धर्म कार्यों में कभी प्रमाद न करना चाहिए और न कभी पापों में परिणति करना चाहिए, क्योंकि पाप के कारण नरक आदि के दुःख मिलेंगे और कदाचित् उसके बाद मोक्ष भी प्राप्त होगा, तो होगा पर दुःख भोग-भोगकर पश्चात् मोक्ष की विधि उसे लग सकेगी। और कोई व्रत करता है तो व्रत के आचरण के प्रसाद से लोक सुख के बाद उसे आत्मा की भी प्राप्ति होगी, स्वर्ग भी मिलेगा। तो व्रत करना हमेशा ही लाभदायक है।
मन के जीते जीत—भैया! व्रत में कठिनाई कुछ नही है, केवल भाव की बात है। अपने भावो को सम्हाल लें तो काम ठीक बैठता है। मानो जाड़े के दिन है, रात्रि को प्यास न लगती होगी पर जरासी भी कुछ बात हो तो रात को भी प्यास की वेदना सी अनुभव करते और थोड़ी हिम्मत बनायी तो गर्मी के दिनों में भी रात को पानी की वेदना नही सताती। मन के हारे हार है मनके जीते जीत। जो योगी पुरुष गुरू के उपदेशानुसार आत्मा का ध्यान करते हैं उनके अनन्त शक्तिवाला आनन्द तो उत्पन्न होगा ही, पर स्वर्ग सुख भी बहुत प्राप्त होता है। जिसको उस ही भव से मोक्ष जाना है ऐसा मनुष्य जिस समय आत्मा का अरहंत और सिद्ध के रूप से ध्यान करता है उसे इस आत्मध्यान के प्रताप से मोक्ष मिलता है। न हो कोई चरम शरीरी और फिर भी वह अरहंत सिद्ध के रूप से आत्मा का ध्यान करता है उसे भी स्वर्गादिक के तो सुख मिलते ही है।
आत्मा की प्रभुस्वरूपता—अपने आपको जो लोग यह समझते हैं कि मैं अमुक लाल हूँ, अमुकचंद हूँ, ऐसे बाल बच्चे वाला हूँ, अमुक का अमुक हूं, ऐसी पोजीशन का हूं उनका संसार बढ़ता रहता है। अरे इस ही आत्मा में जो हम आप हैं वह शक्ति है कि अरहंत और सिद्ध बन सकते हैं। तो जैसी पवित्र परिणति इसकी हो सकती है उस रूप में हम ध्यान किया करें तो उत्तम परिणति हो सकती है। मैं अरहंत हूँ, वर्तमान परिणति को निरखकर न बोलो, किन्तु अपने स्वभाव पर बल देकर जिस स्वभाव का पूर्ण विकास अरहंत कहलाता है उस स्वभाव पर बल देकर अनुभव करिये। मैंअरहंत हूं, अरहंत कुछ चेतन जाति को छोड़कर अन्य जाति में नही होता है। यह ही मैं चेतन हूं और अरहंत जो हुए हैं वे भी ऐसे ही चेतन है, केवल दृष्टि के फर्क से यह इतना बड़ा फर्क हो गया। सारभूत यह है कि जिसे धर्म करना हो तो पहिले यह समझना होगा कि मैं न मनुष्य हूं न स्त्री हूँ, न इस शरीर वाला हूँ किन्तु एक ज्ञानस्वरूप आत्मा हूं, ऐसी समझ के बिना धर्म हो ही नही सकता।
अपनी तीन जिज्ञासायें—भैया! एक सीधी सी बात है कि जिसका मन मोह में फंसा है उसे अन्तर्ज्ञान की यह बात समझ में नही आ सकती है। वह इस बात पर ध्यान नही दे सकता है, और जिसे व्यामोह नही है, सुनते ही के साथ उसकी समझ में आ जायगा कि यह ठीक मार्ग है। ऐसे इस आत्मा के ज्ञान को बढाये, उसकी ही दृष्टि रखें और उसकी ही दृष्टि के प्रसाद से पाप आदिक अवस्थावों को त्याग व्रत आदिक तपश्चरण आदिक धर्म की क्रियावों में लग जाय तो ऐसी निर्मलता पैदा होती है कि यह आत्मा भगवान हो जाता है। हम क्या है? हमें क्या बनना है और उसके लिये हमें क्या करना चाहिए, इन तीनों बातो का सही उत्तर ले लो तब धर्म आगे बनेगा। हम क्या है सोच लो। हम वह है जो सदा रहता है। जो नष्ट हो वह मैं नही हूं। अब यह निर्णय कर लो कि हमें क्या बनना है? हमें बनना है सहज शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप। एतदर्थ में हमें क्या करना चाहिए? कौनसा ऐसा काम है जिसके कर लेने पर फिर काम करने को बाकी न रहे। भला काम तो वही है जिसके कर लेने पर फिर वह पूर्ण हो ही गया। अब आगे कुछ भी करने की जरूरत न रही ऐसा कौनसा काम है? पंचेन्द्रिय के विषयों के साधन जुटाना, यह तो आकुलता को बढ़ाने वाला है। करने योग्य काम तो केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने का है।
मिथ्या आशय से कर्तव्य में बाधा—दो भाई थे। वे परस्पर में एक दूसरे को चाहने वाले थे। उनमें से बडा भाई एक दिन बाजार से दो अमरूद खरीद लाया। दाहिने हाथमें बड़ा अमरूद था और बायें हाथ में छोटा अमरूद था। सामने से एक उसका लड़का और एक भाई का लड़का आ गया जो दाहिनी और था छोटे-भाई का लड़का बांई ओर था उसका लड़का । तो उसने बड़ा अमरूद अपने लड़के को देने के लिए यों हाथों का क्रास बनाकर अमरूद दिया। छोटे भाई ने इस घटना को देख लिया। उसके हृदय पर इस बात से बड़ा धक्का पहुंचा। वह कहाँ गम खाने वाला था। देखो इतनी छोटी सी बात पर छोटा भाई कहता है बड़े भाई से कि भाई अब हम अलग होना चाहते हैं,एक में नही रहेंगे। बड़े भाई ने बहुत कहा कि भैया अलग न हो, तुम चाहे हमारी सारी जायदाद ले लो। कहा—नही, हमें अलग हो जाने दो। तो यह मोह और पक्ष की बातें अच्छी नहीं होती है। अपनी आत्मा को पहिचानो और सबको एक समान मानो।