वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 22
From जैनकोष
संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः।
आत्मानमात्मवानध्यायेदात्मनैवात्मनात्मनि।।२२।।
आत्मा में अभेद षट्कारता—पूर्व श्लोक में आत्मा का अस्तित्त्व प्रमाण सिद्ध बताया है। प्रमाण सिद्धआत्मा के परिज्ञान होने पर अब यह उत्सुकता होती है कि इस आत्मा की उपासना किस प्रकार करना चाहिए? उसके उपासना की विधि इस श्लोक में कही जा रही ह। कल्याणार्थी आत्मा इन्द्रियके विषयों को संयत करके रोक करके एकाग्रचित्त होकर अपने आत्मा में स्थित अपने आत्मा को अपने आत्म उपयोग द्वारा ध्यान करे। आत्मा के परिज्ञान में आत्मा ही तो कारण है और आत्मा ही आधार है। (१) कर्त्ता—जानने वाला भी यह आत्मा स्वयं है (२) कर्म—कर्म जिसको जाना जा रहा है वह आत्मा भी स्वयं है। (३) करण—जिसके द्वारा जाना जा रहा है वह करण भी स्वयं है (४) अधिकरण—जिसमें जाना जा रहा है वह आधार भी स्वयं है। इसके चार कारकों का वर्णन आया है। साथ ही दो कारकों का भी मंतव्य गर्भित है कि (५) उपादान—जिससे जाना जा रहा है अर्थात् जानन किया, क्षणिक रूप में उपस्थित होकर ज्ञान ने जिस ध्रुव पदार्थ का संकेत किया वह अपादान भूत आत्मा भी स्वयं है (६) सम्प्रदान—जिसके लिए जाना जा रहा है वह प्रयोजन भी स्वयं है।
अभेदषट्कारता पर एक दृष्टान्त—जैसे कोई साँप लम्बा अपने शरीर को कुंडलिया बनाकर गोलमटोल करके बैठ जाय तो वहाँ कुंडलिया रूप कौन बनता है? सांप, और किसको कुंडली बनाता है? अपने को और किस चीज के द्वारा कुण्डली बनाता है? अपने आपके द्वारा, और कुण्डली बनाने का प्रयोजन क्या है, किसके लिए कुण्डलीरूप बनाता है? अपने आपके आराम के लिए, अपने आपकी वृत्ति के लिए कुण्डली बनाता है, और यह कुण्डली बनाने रूप परिणमन जो कि क्षणिक है अर्थात् अभी बनाया है, कुछ समय बाद मिटा भी देगा सो कुण्डलियाँ रूप परिणमन किस पदार्थ से बनाता है? उस परिणति में ध्रुव पदार्थ क्या है? तो दृष्टान्त में वह सर्प स्वयं ही है और यह कुण्डली बनी किसमें है? उस सांप में ही है। जैसे वहाँ अभेदकारक स्पष्ट समझ में आता है इससे भी अधिक स्पष्ट ज्ञानियों की दृष्टि में आत्मा के अभेदकारकत्वपना अनुभव में आता है। यह आता स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष अनुभव करने के योग्य है।
स्वसंवेदनप्रत्यक्ष के उद्योग के उपाय—वह स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष कैसे बने, उसका उपाय है इस सहज आत्मस्वरूप की एकाग्रता करना। इस आत्मतत्त्व पर एकाग्ररूप से बना हुआ उपयोग आत्मा का स्वसम्वेदन करा देता है। चित्त की एकाग्रता के उपाय है कषायों की शान्ति करना। जब तक कषायें शान्त नहीं होती है चित्त एकाग्र नहीं होता है। कषायों के शांत किए बिना लौकिक पदार्थों के उपयोग में भी एकाग्रता नहीं रहती, फिर शान्त स्वभावी निज आत्मतत्त्व के उपयोग में स्थिरता तो कषायों के शांत किए बिना असम्भव है, अतः एकाग्रता करने के लिए कषायों की शान्ति आवश्यक है। कषाय दब जाय, शान्त हो जाय, साथ ही कषाय शमन के लिए इन्द्रिय का दमन आवश्यक है। ये इन्द्रियाँ उद्दण्ड होकर अपने विषयों में प्रवृत्त हो रही है अथवा यह उपयोग इन्द्रिय के विषयों मे आसक्त हो रहा है, उनसे यह सुख मानता है और उसमें ही हित समझता है, ऐसे इन्द्रिय विषय की प्रवृत्ति में चित्त का अस्थिर होना प्राकृतिक बात है। और कषाय बढ़ते रहना भी प्राकृतिक है इसलिए इन्द्रिय के दमन की भी प्रथम आवश्यकता है। जो जीव इन्द्रिय का दमन नहीं कर सकता वह चित्त को एकाग्र नहीं बना सकता। इसलिए इन्द्रिय के विषयों का निरोध भी आवश्यक है। जब इन्द्रिय के विषयों का निरोध हो जाय तो आत्मा में समता परिणाम जाग्रत होता है। इस समता परिणाम का ही नाम आत्मबल है। जहाँ यह आत्मबल प्रकट हुआ है वहाँ उपयोग स्थिर है, यो उपयोग को एकाग्र करके स्वसम्वेदन प्रत्यय के द्वारा यह आत्मा अनुभव में आता है।
आत्मा में स्वपरप्रकाशकता का स्वभाव—इस आत्मा में स्वपरप्रकाशकता का स्वभाव पड़ा हुआ है। जैसे दीपक स्वपर प्रकाशक है ऐसे ही आत्मा स्वपर का जाननहार है। जैसे कमरे मे दीपक जलता हो तो कोई यह नहीं कहता कि दीपक को ढूँढ़ने के लिए मुझे दीपक दो या बैट्री दो, ऐसे ही यह आत्मा परपदार्थों का भी प्रकाशक है और साथ ही अपने आपका भी प्रकाशक है। इस कारण आत्मा के जानने के लिए भी अन्य पदार्थ की, अन्य साधनों की आवश्यकता नहीं रहती है। तब जो पुरूष आत्मा का ज्ञान चाहते हैं उन्हें प्रथम तो यह विश्वास करना चाहिए कि मैं अपने आत्मा का ज्ञान बड़ी सुगमता से कर सकता हूं क्योंकि आत्मा ही तो स्वयं ज्ञानमय है और उस ज्ञानमय स्वरूप से ही इस ज्ञानमय आत्मा को जानना है। इस कारण मैं आत्मा का सुगमतया ज्ञान कर सकता हूं।
आत्म परिज्ञान व धर्मपालन में पर की निरपेक्षता—भैया ! आत्मा के परिज्ञान के लिए अन्य पदार्थों की चिन्ता नहीं करनी है। मैं कैसे आत्मा का ज्ञान करूँ? मेरे पास इतना धन नहीं है कि आत्मा के ज्ञान की बात बनाऊँ। आत्मा के ज्ञान में धन की आवश्यकता नहीं है। जैसे कुछ लोग धर्म धारण के प्रसंग में कहने लगते हैं कि हमारे धन की स्थिति कुछ अच्छी होती तो हम जरूर धर्म पालते, प्रतिमा पालते, पर धर्म के धारण में आर्थिक स्थिति की पराधीनता है कहाँ? धर्म किसे कहते हैं,वह धर्म तो समस्त परपदार्थों से विविक्त होकर ही प्रकट होता है। जैसे लोग कह देते हैं कि शुद्ध खान पान के लिए कुछ विशेष पैसे की जरूरत पड़ती है। शुद्ध घी बनाना है, शुद्ध आटा तैयार करना है तो कुछ धन ज्यादा लगेगा तब शुद्ध भोजन किया जायगा और धर्म पालन होगा, ऐसा सोचते हे लोग, परन्तु पदार्थों के शुद्ध बनाने में कुछ अधिक व्यय नहीं होता। खाना तो उसे था ही, खाता वह अशुद्ध रीति से, पर शुद्ध रीति के भोजन में कुछ धन की सापेक्षता विशेष नहीं हुई है, भोजनमात्र में जो सापेक्षता है उतने ही व्यय की अपेक्षा शुद्ध भोजन में है, परिश्रम की थोड़ी आवश्यकता हुई है। धर्म पालन धन के आधीन नहीं है। फिर अध्यात्म धर्म पालन में जो वास्तविक धर्मपालन है उसमें तो धन की रंच भी आवश्यकता नहीं होती है।
आत्मज्ञान में परद्रव्य की अटक का अभाव—जो लखपति करोड़पति पुरूष है वे आत्मा का ज्ञान जल्दी कर लें और गरीब न कर पाये ऐसी उलझन आत्मा के ज्ञान में नहीं हे। बल्कि अमीर पुरुष, लखपति करोड़पति पुरूष प्रायः धन की और आकृष्ट होगा, धन की तृष्णा में रत रहेगा, उसे आत्मज्ञान होना कठिन है, और कष्ट में, दरिद्रता मे पड़ा हुआ पुरूष चूँकि अपने चित्त की लम्बी छलांग नहीं मारता है अतः अपने आपको अपने आपके द्वारा अपने आप में अपने आपके सहज स्वरूप के रूप में ध्यान करते रहना चाहिए। बाह्यपदार्थों का विकल्प टूटे तो स्वरसतः स्वयं ही अपने आत्मा का प्रतिबोध होता है।
आत्म परिज्ञानार्थ स्वरूप प्रतिबोध की आवश्यकता—यह आत्म परिज्ञान बने इसके लिए पदार्थ विषयक स्वरूप का स्पष्ट प्रतिबोध होना चाहिए। प्रत्येक पदार्थ द्रव्य, गुण, पर्यायस्वरूप है। उदाहरण में जैसे यह मैं आत्मा आत्मद्रव्यत्व, आत्मशक्ति और आत्म परिणमन से युक्त हूं।
आत्मा में गुण व पर्याय के परिज्ञान की पद्धति—आत्मपरिणमन का परिज्ञान बहुत सुगम है क्योंकि वह स्पष्ट रूप है। रागद्वेषादि हो रहे हो अथवा वीतरागता बन रही हो वह सब आत्मा का परिणमन है। ये समस्त आत्मा के परिणमन अपनी शक्ति के आघार से प्रकट होते हैं,अर्थात् जितने प्रकार के परिणमन है उतने प्रकार की शक्ति पदार्थ में जानना चाहिए। कोई भी परिणमन उस परिणमन की शक्ति से ही तो प्रकट हुआ है। जैसे आत्मा में जानना परिणमन होता है तो जानन की शक्ति है तभी जानन परिणमन होता है, और यह जानना परिणमन जानन शक्ति का व्यक्त रूप है। यह विशिष्ट जानना नष्ट हो जायगा फिर और कुछ जानना बनेगा, वह भी नष्ट होगा। अन्य कुछ जानन बनेगा, इस प्रकार जानन परिणमन की संतति चलती जाती है। वह संतति किसमें बनी है? जिसमें बनी है वह है ज्ञान शक्ति, ज्ञानस्वभाव, ज्ञानगुण। तो जैसे जानन की परिणति का आधारभूत ज्ञानगुण है ऐसे ही आनन्द की परिणति का आधारभूत आनन्दगुण है। किसी भी प्रकार के विश्वास का आधारभूत श्रद्धा ज्ञानगुण है, क्रोधादिक कषायों का अथवा शान्त परिणमन का आधारभूत चारित्र गुण है। इस प्रकार जितने भी प्रकार के परिणमन पाये जाते हैं उतनी ही आत्मा में शक्तियाँ है, उनका ही नाम गुण है।
आत्मपदार्थ की द्रव्यरूपता—इन गुण और पर्यायों को आधारभूत द्रव्यपना भी इस आत्मा में मौजूद है, जो गुण पर्यायवान हो वह द्रव्य है, जो द्रव्य की शक्ति है वह गुण है और उन गुणों का जो व्यक्त रूप है वह पर्याय है। यों आत्मपदार्थ द्रव्यत्व, गुण और पर्याय से युक्त है।
आत्मज्ञान में स्वसंवेदन की विधि—प्रत्येक पदार्थ अपने आपके ही द्रव्य गुण पर्याय से है, किसी अन्य के द्रव्य गुण पर्याय से नहीं है। अब यहाँ अन्य द्रव्य, अन्य गुण, अन्य पर्याय का विकल्प तोड़कर केवल आत्मद्रव्य, आत्मगुण और आत्मपर्याय का ही उपयोग रखे तो चूंकि वही ज्ञाता, वही ज्ञेय और वही ज्ञान भी बन जाता है तो वहाँ स्वसम्वेदन प्रकट होता है और स्वसम्वेदन में यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि यह मैं आत्मा हूं, ऐसे आत्मपदार्थ के उपयोग में चित्त की एकाग्रता होती है।
चित्त की एकाग्रता में प्रगति—चित्त की एकाग्रता होने से इन्द्रिय का दमन होता है। जो लोग बेकार रहते हैं,जिन्हें कोई काम काज नहीं है, न कोई अपूर्व-अपूर्व कार्य करने की धुन है ऐसे निठल्ले पुरुष इन्द्रिय के विषयो का शिकार बने रहते हैं। करे क्या वे? उपयोग यदि शुद्ध तत्त्व में नहीं रहता है तो यह बाहर के विषय में अधिक बढ़ेगा। इन्द्रिय का दमन परमार्थ तत्त्व की एकाग्रता बिना वास्तविक पद्धतिमे नहीं हो सकता है। जब इन्द्रिय का दमन न होगा, चित्त की एकाग्रता न होगी तो मन विक्षिप्त रहा, यत्र तत्र डोलने वाला रहा तो मन की इस विक्षिप्तता के होने पर स्वानुभव हो नहीं सकता। अतः आत्मा के अनुभव के लिए श्रुतज्ञान का आश्रय लेना परम आवश्यक है । वस्तु के सही स्वरूप का परिज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है।
शुभ उपयोगो का प्रगति में सहयोग—भैया ! पहिले श्रुतज्ञान का आलम्बन करके अर्थात् वस्तुस्वरूप की विद्या सीखकर आत्मा को जाने। पीछे उस आत्मा के जानने की निरन्तरता से आत्मा का अनुभव करे। जो पुरुष आत्मा का द्रव्यरूप से, गुण रूप से, पर्यायरूप से ज्ञान नहीं करते हैं वे आत्मस्वभाव को नहीं जान समझते हैं। इस कारण ये शुभोपयोग हमारे पूर्वापर अथवा एक साथ चलते रहना चाहिए। इन्द्रिय का दमन करे, पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त रहे और क्रोधादिक कषायों को शान्त करे, श्रुतज्ञान का, तत्त्व ज्ञान का अभ्यास बनाए रहे, इन सब पुरुषार्थों के प्रताप से एक परम आनन्द की छटा प्रकट होगी। ज्ञानस्वरूप यह मैं आत्मा अपने आपके द्वारा ज्ञान में आऊँगा। आत्मा की इस तरह की अभेद उपासना से अनुभूति होती है।
आत्मकल्याण के लिये आत्माश्रय की साधना—आत्मा का परिज्ञान आत्मा के ही द्वारा होता है। ऐसा निर्णय करके हे कल्याणार्थी पुरूषों, आत्मज्ञान के लिए अन्य चिन्ताओं को त्याग दो और आत्मज्ञान में ही सत्य सहज परम आनन्द है ऐसा जानकर उस शुद्ध उत्कृष्ट आनन्द की प्राप्ति के लिए परपदार्थों की चिन्ता का त्याग कर दो। ज्ञान और आनन्द आत्मा में सहज स्वयं ही प्रकट होता है। जितना हम ज्ञान और आनन्द के विकास के लिए परपदार्थों का आश्रय लेते हैं और ऐसी दृष्टि बनाते हैं कि मुझे अमुक पदार्थ से ही ज्ञान हुआ है, अमुक पदार्थ से ही आनन्द मिला है, इस विकल्प में तो ज्ञान और आनन्द का घात हो रहा है। एक प्रबल साहस बनाएं और किसी क्षण समस्त परपदार्थों का विकल्प छोड़कर परम विश्राम से अपने आपका सहज प्रतिभास हो तो ऐसे आत्मानुभव मे जो आनन्द प्रकट होता है उस आनन्द में ही यह सामर्थ्य है कि भव-भव के बाँधे हुए कर्मजालों को यह दूर कर सकता है। यों आत्मा की उपासना का अभेदरूप उपाय बताया गया है।