दर्शनपाहुड गाथा 5
From जैनकोष
अब, जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और शास्त्रों को अनेक प्रकार से जानते हैं तथापि संसार में भटकते हैं - ऐसे ज्ञान से भी दर्शन को अधिक कहते हैं -
सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं । आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ।।४।।
सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा: जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि । आराधना विरहिता: भ्रंति तत्रैव तत्रैव ।।४।।
जो जानते हों शास्त्र सब पर भ्रष्ट हों सम्यक्त्व से । घूमें सदा संसार में आराधना से रहित वे ।।४।।
अर्थ - जो पुरुष सम्यक्त्वरूप रत्न से भ्रष्ट है तथा अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं, तथापि वह आराधना से रहित होते हुए संसार में ही भ्रण करते हैं करते हैं । दो बार कहकर बहुत परिभ्रण बतलाया है ।
भावार्थ - जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छन्द, अलंकार आदि अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं तथापि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप आराधना उनके नहीं होती; इसलिए कुमरण से चतुर्गतिरूप संसार में ही भ्रण करते हैं-मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते; इसलिए सम्यक्त्वरहित ज्ञान को आराधना नाम नहीं देते ।