दर्शनपाहुड गाथा 11
From जैनकोष
अब कहते हैं कि जो दर्शन भ्रष्ट है, वह मूलभ्रष्ट है, उसको फल की प्राप्ति नहीं होती -
जह मूलम्मि विणट्ठे दुस्स परिवार णत्थि परवड्ढी । तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झंति ।।१०।।
यथा मूले विनष्टे द्रुस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धि: । तथा जिनदर्शनभ्रष्टा: मूलविनष्टा: न सिद्धयन्ति ।।१०।।
अर्थ - जिसप्रकार वृक्ष का मूल विनष्ट होने पर उसके परिवार अर्थात् स्कंध, शाखा, पत्र, पुष्प, फल की वृद्धि नहीं होती, उसीप्रकार जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं, बाह्य में तो नग्न-दिगम्बर यथाजातरूप निर्ग्रन्थ लिंग, मूलगुण का धारण, मयूर पिच्छिका (मोर के पंखों की पींछी) तथा कमण्डल धारण करना, यथाविधि दोष टालकर खड़े-खड़े शुद्ध आहार लेना - इत्यादि बाह्य शुद्ध वेष धारण करते हैं तथा अन्तरंग में जीवादि छह द्रव्य, नवपदार्थ, सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान एवं भेदविज्ञान से आत्मस्वरूप का अनुभवन - ऐसे दर्शन-मत से बाह्य हैं, वे मूलविनष्ट हैं, उनके सिद्धि नहीं होती, वे मोक्षफल को प्राप्त नहीं करते ।