दर्शनपाहुड गाथा 23
From जैनकोष
अब कहते हैं कि जो ऐसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित हैं, वे वंदन करने योग्य हैं -
दंसणणाणचरित्ते तवविणये १णिच्चकालसुपसत्था । एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ।।२३।।
ज्ञान दर्शन चरण में जो नित्य ही संलग्न हैं । गणधर करें गुण कथन जिनके वे मुनीजन वंद्य हैं ।।२३।।
दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनये नित्यकालसुप्रस्वस्था: । ऐते तु वन्दनीया ये गुणवादिन: गुणधराणाम् ।।२३।।
अर्थ - दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तप तथा विनय इनमें जो भले प्रकार स्थित हैं, वे प्रशस्त हैं, सराहने योग्य हैं अथवा भले प्रकार स्वस्थ हैं लीन हैं और गणधर आचार्य भी उनके गुणानुवाद करते हैं, अत: वे वन्दने योग्य हैं । दूसरे जो दर्शनादिक से भ्रष्ट हैं और गुणवानों से मत्सरभाव रखकर विनयरूप नहीं प्रवर्तते हैं वे वंदने योग्य नहीं हैं ।।२३।।