दर्शनपाहुड गाथा 29
From जैनकोष
आगे कोई आशंका करता है कि संयमी को वंदने योग्य कहा तो समवसरणादि विभूति सहित तीर्थंकर हैं, वे वंदने योग्य हैं या नहीं ? उसका समाधान करने के लिए गाथा कहते हैं कि जो तीर्थंकर परमदेव हैं, वे सम्यक्त्वसहित तप के माहात्म्य से तीर्थंकर पदवी पाते हैं, वे भी वंदने योग्य हैं -
चउसटि्ठ चमरसहिओ चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो । अणवरबहुसत्तहिओ कम्मक्खयकारणणिमित्तो ।।२९।।
चतु:षष्टिचमरसहित: चतुस्त्रिंशद्भिरतिशयै: संयुक्त: । १अनवरतबहुसत्त्वहित: कर्मक्षयकारणनिमित्त:२ ।।२९।।
अर्थ - जो चौसठ चंवरों से सहित हैं, चौतीस अतिशय सहित हैं, निरन्तर बहुत प्राणियों का हित जिनसे होता है ऐसे उपदेश के दाता हैं और कर्म के क्षय का कारण हैं ऐसे तीर्थंकर परमदेव हैं, वे वंदने योग्य हैं ।
भावार्थ - यहाँ चौंसठ चँवर चौंतीस अतिशय सहित विशेषणों से तो तीर्थंकर का प्रभुत्व बताया है और प्राणियों का हित करना तथा कर्मक्षय का कारण विशेषण से दूसरे का उपकार १. `अणुचरबहुसत्तहिओ' (अनुचरबहुसत्त्वसहित:) मुद्रित षट्प्राभृत में यह पाठ है । २. `निमित्ते' मुद्रित षट्प्राभृत में ऐसा पाठ है । चौसठ चमर चौंतीस अतिशय सहित जो अरहंत हैं । वे कर्मक्षय के हेतु सबके हितैषी भगवन्त हैं ।।२९।।
करनेवालापना बताया है, इन दोनों ही कारणों से जगत में वंदने, पूजने योग्य हैं । इसलिए इसप्रकार भ्र नहीं करना कि तीर्थंकर कैसे पूज्य हैं, यह तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतराग हैं । उनके समवसरणादिक विभूति रचकर इन्द्रादिक भक्तजन महिमा करते हैं । इनके कुछ प्रयोजन नहीं है, स्वयं दिगम्बरत्व को धारण करते हुए अंतरीक्ष तिष्ठते हैं - ऐसा जानना ।।२९।।