भावपाहुड गाथा 104
From जैनकोष
आगे अपने दोष को गुरु के पास कहना, ऐसी गर्हा का उपदेश करते हैं -
जं किंचि कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेण ।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण ।।१०६।।
य: कश्चित् कृत: दोष: मनोवच: कायै: अशुभभावेन ।
तं गर्हं गुरुसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा ।।१०६ ।।
अरे मन वचन काय से यदि हो गया कुछ दोष तो ।
मान माया त्याग कर गुरु के समक्ष प्रगट करो ।।१०६।।
अर्थ - हे मुने ! जो कुछ मन वचन काय के द्वारा अशुभ भावों से प्रतिज्ञा में दोष लगा हो उसको गुरु के पास अपना गौरव (महंतपने का गर्व) छोड़कर और माया (कपट) छोड़कर मन वचन काय को सरल करके, गर्हा कर अर्थात् वचन द्वारा प्रकाशित कर ।
भावार्थ - अपने को कोई दोष लगा हो और निष्कपट होकर गुरु को कहे तो वह दोष निवृत्त हो जावे । यदि आप शल्यवान् रहे तो मुनिपद में यह बड़ा दोष है, इसलिए अपना दोष छिपाना नहीं, जैसा हो वैसा सरलबुद्धि से गुरुओं के पास कहे तब दोष मिटे, यह उपदेश है । काल के निमित्त से मुनिपद से भ्रष्ट हुए, पीछे गुरुओं के पास प्रायश्चित्त नहीं लिया, तब विपरीत होकर अलग सम्प्रदाय बना लिये, ऐसे विपर्यय हुआ ।।१०६।।