भावपाहुड गाथा 109
From जैनकोष
आगे भावलिंग शुद्ध करके द्रव्यलिंग सेवन का उपदेश करते हैं -
सेवहि चउविहलिंगं अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो ।
बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं ।।१११।।
सेवस्व चतुर्विधलिंगं अभ्यंतरलिंगशुद्धिमापन्न: ।
बाह्यलिंगमकार्यं भवति स्फुटं भावरहितानाम् ।।१११।।
अंतरंग शुद्धिपूर्वक तू चतुर्विध द्रवलिंग धर ।
क्योंकि भाव बिना द्रवलिंग कार्यकारी है नहीं ।।१११।।
अर्थ - हे मुनिवर ! तू अभ्यन्तरलिंग की शुद्धि अर्थात् शुद्धता को प्राप्त होकर चार प्रकार के बाह्यलिंग का सेवन कर, क्योंकि जो भावरहित होते हैं उनके प्रगटपने बाह्यलिंग अकार्य है अर्थात् कार्यकारी नहीं है ।
भावार्थ - जो भाव की शुद्धता से रहित हैं, जिनके अपनी आत्मा का यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान, आचरण नहीं है, उनके बाह्यलिंग कुछ कार्यकारी नहीं है, कारण पाकर तत्काल बिगड़ जाते हैं, इसलिए यह उपदेश है, पहले भाव की शुद्धता करके द्रव्यलिंग धारण करो । यह द्रव्यलिंग चार प्रकार का कहा है, उसकी सूचना इसप्रकार है - १. मस्तक के, २. डाढी के, ३. मूछों के केशों का लोंच करना तीन चिह्न तो ये और ४. नीचे के केश रखना अथवा १. वस्त्र का त्याग, २. केशों का लोंच करना, ३. शरीर का स्नानादि से संस्कार न करना, ४. प्रतिलेखन मयूरपिच्छिका रखना, ऐसे भी चार प्रकार का बाह्य लिंग कहा है । ऐसे सब बाह्य वस्त्रादिक से रहित नग्न रहना, ऐसा नग्नरूप भावविशुद्धि बिना हँसी का स्थान है और कुछ उत्तम फल भी नहीं है ।।१११।।