भावपाहुड गाथा 134
From जैनकोष
आगे उस दया ही का उपदेश करते हैं -
जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं ।
कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए ।।१३६।।
जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभूतसत्त्वानाम् ।
कल्याणसुखनिमित्तं परंपरया त्रिविधशुद्धया ।।१३६।।
यदि भवभ्रमण से ऊबकर तू चाहता कल्याण है ।
तो मन वचन अर काय से सब प्राणियों को अभय दे ।।१३६।।
अर्थ - हे मुने ! जीवों को और प्राणीभूत सत्त्वों को परम्परा से अपना कल्याण और सुख होने के लिए मन, वचन, काय की शुद्धता से अभयदान दे ।
भावार्थ - `जीव' पंचेन्द्रियों को कहते हैं, `प्राणी' विकलत्रय को कहते हैं, `भूत' वनस्पति को कहते हैं और `सत्त्व' पृथ्वी, अप्, तेज, वायु को कहते हैं । इन सब जीवों को अपने समान जानकर अभयदान देने का उपदेश है । इससे शुभ प्रकृतियों का बंध होने से अभ्युदय का सुख होता है, परम्परा से तीर्थंकरपद पाकर मोक्ष पाता है, यह उपदेश है ।।१३६।।