भावपाहुड गाथा 135
From जैनकोष
आगे यह जीव षट् अनायतन के प्रसंग से मिथ्यात्व से संसार में भ्रमण करता है उसका स्वरूप कहते हैं । पहिले मिथ्यात्व के भेदों को कहते हैं -
असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी ।
सत्तट्ठी अण्णाणी वेणईया होंति बत्तीसा ।।१३७।।
अशीतिशतं क्रियावादिनामक्रियमाणं च भवति चतुरशीति: ।
सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवति द्वात्रिंशत् ।।१३७।।
अक्रियावादी चुरासी बत्तीस विनयावादि हैं ।
सौ और अस्सी क्रियावादी सरसठ अरे अज्ञानि हैं ।।१३७ ।।
अर्थ - एक सौ अस्सी क्रियावादी हैं, चौरासी अक्रियावादियों के भेद हैं, अज्ञानी सड़सठ भेदरूप हैं और विनयवादी बत्तीस हैं ।
भावार्थ - वस्तु का स्वरूप अनन्तधर्मस्वरूप सर्वज्ञ ने कहा है, वह प्रमाण और नय से सत्यार्थ सिद्ध होता है । जिनके मत में सर्वज्ञ नहीं है तथा सर्वज्ञ के स्वरूप का यथार्थरूप से निश्चय करके उसका श्रद्धान नहीं किया है ऐसे अन्यवादियों ने वस्तु का एकधर्म ग्रहण करके उसका पक्षपात किया कि हमने इसप्रकार माना है वह `ऐसे ही है, अन्य प्रकार नहीं है ।' इसप्रकार विधि-निषेध करके एक-एक धर्म के पक्षपाती हो गये उनके ये संक्षेप से तीन सौ तरेसठ भेद हो गये । क्रियावादी - कई तो गमन करना, बैठना, खड़े रहना, खाना, पीना, सोना, उत्पन्न होना, नष्ट होना, देखना, जानना, करना, भोगना, भूलना, याद करना, प्रीति करना, हर्ष करना, विषाद करना, द्वेष करना, जीना, मरना इत्यादि क्रियायें हैं । इनको जीवादिक पदार्थो के देखकर किसी ने किसी क्रिया का पक्ष किया है और किसी ने किसी क्रिया का पक्ष किया है । ऐसे परस्पर क्रियाविवाद से भेद हुए हैं, इनके संक्षेप में एक सौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं, विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं । कई अक्रियावादी हैं, ये जीवादिक पदार्थो में क्रिया का अभाव मानकर आपस में विवाद करते हैं । कई कहते हैं कि जीव जानता नहीं है, कई कहते हैं कि कुछ करता नहीं है, कई कहते हैं कि भोगता नहीं है, कई कहते हैं उत्पन्न नहीं होता है, कई कहते हैं नष्ट नहीं होता है, कई कहते हैं कि गमन नहीं करता है और कई कहते हैं कि ठहरता नहीं है इत्यादि क्रिया के अभाव के पक्षपात से सर्वथा एकान्ती होते हैं । इनके संक्षेप से चौरासी भेद हैं । कई अज्ञानवादी हैं, इनमें से सर्वज्ञ का अभाव मानते हैं, कई कहते हैं जीव अस्ति है - यह कौन जाने ? कई कहते हैं जीव नास्ति है - यह कौन जाने ? कई कहते हैं, जीव नित्य है - यह कौन जाने? कई कहते हैं जीव अनित्य है - यह कौन जाने ? इत्यादि संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय रूप होकर विवाद करते हैं । इनके संक्षेप से सड़सठ भेद हैं । कई विनयवादी हैं, उनमें से कई कहते हैं देवादिक के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं गुरु के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि माता के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि पिता के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि राजा के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि सबके विनय से सिद्धि है, इत्यादि विवाद करते हैं । इनके संक्षेप से बत्तीस भेद हैं । इसप्रकार सर्वथा एकान्तवादियों के तीन सौ तरेसठ भेद संक्षेप से हैं, विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं, इनमें कई ईश्वरवादी हैं, कई कालवादी हैं, कई स्वभाववादी हैं, कई विनयवादी हैं, कई आत्मवादी हैं । इनका स्वरूप गोम्मटसारादि ग्रन्थों से जानना, ऐसे मिथ्यात्व के भेद हैं ।।१३७।।