भावपाहुड गाथा 147
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि यह जीव `ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी है' किन्तु अनादि पौद्गलिक कर्म के संयोग से इसके ज्ञान-दर्शन की पूर्णता नहीं होती है, इसलिए अल्प ज्ञान-दर्शन अनुभव में आता है और उमसें भी अज्ञान के निमित्त से इष्ट-अनिष्ट बुद्धिरूप राग-द्वेष-मोह-भाव के द्वारा ज्ञानदश र्न में कलुषतारूप सुख-दु:खादिक भाव अनुभव में आते हैं । यह जीव निजभावनारूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त होता है तब ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य के घातक कर्मो का नाश करता है, ऐसा दिखाते हैं-
दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं ।
णिट्ठवइ भवियजीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ।।१४९।।
दर्शनज्ञानावरणं मोहनीयं अन्तरायकं कर्म ।
निष्ठापयति भव्यजीवा: सम्यक् जिनभावनायुक्त: ।।१४९।।
जिन भावना से सहित भवि दर्शनावरण-ज्ञानावरण ।
अर मोहनी अन्तराय का जड़ मूल से मर्दन करें ।।१४९।।
अर्थ - सम्यक् प्रकार जिनभावना से युक्त भव्यजीव है वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, इन चार घातिया कर्मो का निष्ठापन करता है अर्थात् सम्पूर्ण अभाव करता है ।
भावार्थ - दर्शन का घातक दर्शनावरण कर्म है, ज्ञान का घातक ज्ञानावरण कर्म है, सुख का घातक मोहनीय कर्म है, वीर्य का घातक अन्तराय कर्म है । इनका नाश कौन करता है ? सम्यक् प्रकार जिनभावना भाकर अर्थात् जिन आज्ञा मानकर जीव-अजीव आदि तत्त्व का यथार्थ निश्चय कर श्रद्धावान हुआ हो वह जीव करता है । इसलिए जिन आज्ञा मान कर यथार्थ श्रद्धान करने का यह उपदेश है ।।१४८।।