भावपाहुड गाथा 157
From जैनकोष
आगे फिर उन मुनियों की सामर्थ्य को कहते हैं -
मोहमयगारवेहिं य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता ।
ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण ।।१५९।।
मोहमदगारवै: च मुक्ता: ये करुणभावसंयुक्ता: ।
ते सर्वदुरितस्तंभं घ्नंति चारित्रखड्गेन ।।१५९।।
मोहमद गौरवरहित करुणासहित मुनिराज जो ।
अरे पापस्तंभ को चारित खड़ग से काटते ।।१५९।।
अर्थ - जो मुनि मोह-मद-गौरव से रहित हैं और करुणाभाव सहित हैं, वे ही चारित्ररूपी खड्ग से पापरूपी स्तंभ को हनते हैं अर्थात् मूल से काट डालते हैं ।
भावार्थ - परद्रव्य से ममत्वभाव को `मोह' कहते हैं । `मद'-जाति आदि परद्रव्य के संबंध से गर्व होने को `मद' कहते हैं । `गौरव' तीन प्रकार का है - ऋद्धिगौरव, सातगौरव और रसगौरव । जो कुछ तपोबल से अपनी महंतता लोक में हो उसका अपने को मद आवे, उसमें हर्ष माने वह `ऋद्धिगौरव' है । यदि अपने शरीर में रोगादिक उत्पन्न न हों तो सुख माने तथा प्रमादयुक्त होकर अपना महंतपना माने `सातगौरव' है । यदि मिष्ट पुष्ट रसीला आहारादिक मिले तो उसके निमित्त से प्रमत्त होकर शयनादिक करे `रसगौरव' है । मुनि इसप्रकार गौरव से तो रहित हैं और परजीवों की करुणा से सहित हैं - ऐसा नहीं है कि परजीवों से मोह ममत्व नहीं है इसलिए निर्दय होकर उनको मारते हैं, परन्तु जबतक राग अंश रहता है तबतक परजीवों की करुणा ही करते हैं, उपकारबुद्धि रहती है । इसप्रकार ज्ञानी मुनि पाप रूप अशुभकर्म, उसका चारित्र के बल से नाश करते हैं ।।१५९।।