उपधान
From जैनकोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या २८२ आयंविल णिव्वियडी अण्णं वा होदि जस्स कादव्वं। तं तस्स करेमाणो उपहाणजुदो हवदि एसो ।२८२।
= आचाम्ल आहार (कांजी) निर्विकृति आहार (नीरस), तथा और भी जिस शास्त्रके योग्य जो क्रिया कही हो उसका नियम करना, वह उपधान है। उससे भी शास्त्रका आदर होता है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ११३/२६१/१ उपहाणे अवग्रहः। यावदिदमनुयोगद्वारं निष्ठामुपैति तावदिदं मया न भोक्तव्यं, इदं अनशनं चतुर्थ षष्ठादिकं करिष्यामीति संकल्पः। स च कर्म व्यपनयतोति विनयः।
= विशेष नियय धारण करना। जब तक अनुयोगका प्रकरण समाप्त होगा तब तक मैं उपवास करूँगा, अथवा दो उपवास करूँगा, यह पदार्थ नहीं खाऊँगा या भोगूँगा; इस तरहसे संकल्प करना उपधान है। यह विनय अशुभ कर्मको दूर करता है।