योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 122
From जैनकोष
कर्म में जीव के स्वभाव का आच्छादन करने का उदाहरण -
जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् ।
जायते भास्करस्येव शुद्धस्य घन-मण्डलम् ।।१२२।।
अन्वय :- शुद्धस्य भास्करस्य घन-मण्डलं इव मलीमसं कर्म निर्मलस्य जीवस्य आच्छादकं जायते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार घनमण्डल अर्थात् बादलों का समूह निर्मल सूर्य का आच्छादक हो जाता है, उसीप्रकार से निर्मल जीव के स्वभाव का, स्वभाव से मलीन कर्म आच्छादक होता है ।
भावार्थ :- जीव स्वभाव से निर्मल है, सब प्रकार के मल से रहित शुद्ध है । उसको मलिन करनेवाला एक मात्र कर्मल है और वह द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म (शरीरादि) के भेद से तीन प्रकार का है, जो उसे सब ओर से उसीप्रकार आच्छादित किये हुए है, जिसप्रकार कि घनघोर-घटा निर्मल सूर्य को आच्छादित करती है । अनादिकाल से प्रत्येक जीव अपनी गलती/पुरूषार्थ-हीनता से एवं पर्यायगत पात्रता के अनुसार पूर्ण विकास अथवा अत्यधिक विकास अथवा धर्म का प्रारम्भ नहीं कर पाता, उस समय अलगअलग कर्म जीव के साथ निमित्तरूप से नियम से उदयरूप रहते हैं, उनका यहाँ ज्ञान कराया है । इस कथन से कर्म बलवान है, कर्म, जीव के विकास को रोक देता है अथवा विकास करने में बाधक हो जाता है; ऐसा नहीं समझना चाहिए ।