योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 124
From जैनकोष
कषाय रहित जीव के साम्परायिक आस्रव मानने पर आपत्ति -
जीवस्य निष्कषायस्य यद्यागच्छति कल्मषम् ।
तदा संपद्यते मुक्तिर्न कस्यापि कदाचन ।।१२४।।
अन्वय :- यदि निष्कषायस्य जीवस्य कल्मषं आगच्छति तदा कस्य अपि (जीवस्य) कदाचन मुक्ति: न संपद्यते ।
सरलार्थ :- यदि कषायरहित जीव के भी मोहरूप पाप कर्मो का आस्रव होता है, यह बात मान ली जाय तो फिर किसी भी जीव को कभी मोक्ष हो ही नहीं सकता ।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में कषायसहित जीव के साम्परायिक आस्रव की बात कही गयी है - कषाय रहित की नहीं । इस श्लोक में कषाय रहित जीव के भी यदि बन्धकारक साम्परायिक आस्रव माना जाय तो उसमें जो दोषापत्ति होती है, उसे बतलाया है और वह यह है कि तब किसी भी जीव को कभी भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती । कषाय से भी बन्ध और बिना कषाय से भी बन्ध, तो फिर छुटकारा कैसे मिल सकता है? नहीं मिल सकता और यह बात वास्तविकता के भी विरुद्ध है; क्योंकि जो कारण बन्ध के कहे गये हैं, उनके दूर होने पर मुक्ति होती ही है । बन्ध का प्रधान कारण मिथ्यात्वादि कषाय है; जैसा कि इसी ग्रन्थ के बन्धाधिकार में दिये हुए बन्ध के लक्षण से प्रकट है । सूक्ष्मता से सोचा जाय तो जब जीव जघन्यभावरूप कषाय से परिणत होता है, तब भी जीव को कषाय/चारित्रमोह का आस्रव एवं बंध नहीं होता है, यह विषय यहाँ समझना आवश्यक है । प्रश्न :- यह कैसे ? उत्तर :- दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मसाम्पराय चारित्रधारक मुनिराज सूक्ष्म लोभरूप परिणाम से परिणत हो रहे हैं । उनको ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय - इन तीनों घाति कर्मो का तथा सातादि अघाति कर्मो का आस्रव-बन्ध तो हो रहा है; तथापि उन्हें सूक्ष्मलोभ अथवा अन्य किसी भी मोहरूप पापकर्म का न आस्रव है न बन्ध है । इसी कारण से तो वे मुनिराज मोहमुक्त हो पाते हैं । इस विषय के स्पष्टीकरण के लिये पण्डित टोडरमल स्मारक ट्न्स्ट से प्रकाशित पंचास्तिकाय संग्रह गाथा १०३ व इस गाथा की टीका एवं तलटीप/फुटनोट भी सूक्ष्मता से देखें ।