योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 125
From जैनकोष
प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र -
नान्यद्रव्य- परीणाममन्य- द्रव्यं प्रपद्यते ।
स्वान्य-द्रव्य-व्यवस्थेयं परस्य घटते कथम् ।।१२५।।
अन्वय :- अन्य-द्रव्य-परीणामं अन्य-द्रव्यं न प्रपद्यते, (अन्यथा) इयं स्व-अन्य-द्रव्य- व्यवस्था परस्य (था) कथं घटते ? (अर्थात् नैव घटते) ।
सरलार्थ :- अन्य द्रव्य का परिणाम अन्य द्रव्य को प्राप्त नहीं होता अर्थात् एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य के परिणमनरूप कभी नहीं होता, यदि ऐसा न माना जाय तो यह स्वद्रव्य- परद्रव्य की व्यवस्था कैसे बन सकती है ?अर्थात् नहीं बन सकती ।
भावार्थ :- प्रत्येक द्रव्य का परिणमन अपने-अपने उपादान के अनुरूप होता है, दूसरे द्रव्य के उपादान के अनुरूप नहीं । यदि एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य के उपादानरूप होने लगे तो दोनों द्रव्यों में कोई भेद नहीं रहेगा । दोनों द्रव्य एक हो जायेंगे । उदाहरण के तौर पर सन्तरे के बीज से अमरूद और अमरूद के बीज से सन्तरा भी उत्पन्न होने लगे तो यह सन्तरे का बीज और यह अमरूद का बीज है, ऐसा भेद नहीं किया जा सकता और न यह आशा ही की जा सकती है कि सन्तरे का बीज बोने से सन्तरे का वृक्ष उगेगा और उस पर सन्तरे लगेंगे । अन्यथा परिणमन होने की हालत में उस सन्तरे के बीज से कोई दूसरा वृक्ष भी उग सकता है और दूसरे प्रकार के फल भी लग सकते हैं, परन्तु ऐसा नहीं होता, इसी से एक द्रव्य में दूसरे सब द्रव्यों का अभाव माना गया है, तभी वस्तु की व्यवस्था ठीक बैठती है, अन्यथा कोई भी वस्तु अपने स्वरूप को प्रतिष्ठित नहीं कर सकती, तब हम सन्तरे को सन्तरा और अमरूद को अमरूद भी नहीं कह सकते ।