योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 126
From जैनकोष
पर से सुख-दु:ख की मान्यता से निरन्तर आस्रव -
परेभ्य: सुख-दु:खानि द्रव्येभ्यो यावदिच्छति ।
तावदास्रव-विच्छेदो न मनागपि जायते ।।१२६।।
अन्वय :- यावत् (जीव:) परेभ्य: द्रव्येभ्य: सुख-दु:खानि इच्छति, तावत् मनाक् अपि आस्रव- विच्छेद: न जायते ।
सरलार्थ :- जबतक यह जीव परद्रव्यों से सुख-दु:ख की इच्छा करता है अर्थात् परद्रव्यों से सुख-दु:ख की प्राप्ति की मान्यता रखता है, तबतक आस्रव का किंचित्/अल्प भी विच्छेद अर्थात् नाश नहीं हो सकता अर्थात् आस्रव निरन्तर होता ही रहता है ।
भावार्थ :- विपरीत मान्यता अर्थात् मिथ्यात्व ही अधर्म/संसार का मूल है । किसी भी पर से सुख या दु:ख प्राप्ति की मान्यता तो स्पष्ट ही मिथ्यात्व है । जबतक जीव सात व्यसनों से भी अधिक हानिकारक इस मिथ्यात्वरूप पाप परिणाम को करेगा, तबतक उसे दु:खदायक कर्म का आस्रव होता ही रहेगा, यह प्राकृतिक नियम है । आस्रव का विच्छेद नहीं होता इसका अर्थ यह है कि वह निरन्तर मोह-राग-द्वेषमय परिणाम करता रहता है, जिससे उसे प्रति समय वचनातीत अनन्त दु:ख होता है । स्थूल बुद्धिवालों को अर्थात् जिन्हें सर्वज्ञ भगवान के वचनों पर विश्वास नहीं है, उन्हें मात्र बाह्य प्रतिकूलता में ही दु:ख लगता है, जो सर्वथा असत्य है ।