योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 133
From जैनकोष
जीव तथा कर्म के कर्तृत्वसंबंधी कथन -
नान्योन्य-गुण-कर्तृत्वं विद्यते जीव-कर्मणो: ।
अन्योन्यापेक्षयोत्पत्ति: परिणामस्य केवलम् ।।१३३।।
अन्वय :- जीव-कर्मणो: अन्योन्य-गुण-कर्तृत्वं न विद्यते । अन्योन्यापेक्षया केवलं परिणामस्य उत्पत्ति: (जायते) ।
सरलार्थ :- जीव और आठ प्रकार के कर्म में एक दूसरे के गुणों का कर्तापना विद्यमान नहीं है अर्थात् न जीव में कर्म के गुणों को करने की सामर्थ्य है और न कर्म में जीव के गुणों को उत्पन्न करने की शक्ति है । एक-दूसरे की अपेक्षा से अर्थात् निमित्त से केवल परिणाम की ही उत्पत्ति होती है ।
भावार्थ :- विश्व में जाति अपेक्षा छह द्रव्य हैं और संख्या की अपेक्षा से अनंतानंत द्रव्य हैं । प्रत्येक द्रव्य में अनंत गुण हैं, जो अनादिनिधन हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि द्रव्य और गुणों का तो कोई कर्ता नहीं है; क्योंकि जो अनादि-अनंत होते हैं, उनका कोई कर्ता-धर्ता-हर्ता होता ही नहीं । इन द्रव्यों में रहनेवाले गुणों की प्रत्येक समय जो नयी पर्यायें होती हैं उनका वास्तविक कर्ता वही द्रव्य होता है । उस समय उस पर्याय के होने में निमित्तरूप से कोई अन्य द्रव्य की पर्याय अनुकूल रहती है, उसे उस पर्याय का निमित्त कहने का व्यवहार है । पर्याय को ही निमित्त कहते हैं और उपादान में नैमित्तिकरूप से जो नवीन कार्य/अवस्था होती है, उसे नैमित्तिक कहते हैं अर्थात् यह सर्व निमित्त-नैमित्तिक संबंध मात्र पर्याय में होता रहता है, मूल द्रव्य में नहीं - यह मुख्य विषय आचार्य को इस श्लोक में बताना है ।