योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 140
From जैनकोष
मिथ्याचारित्र का स्वरूप -
रागतो द्वेषतो भावं परद्रव्ये शुभाशुभम् ।
आत्मा कुर्वन्नचारित्रं स्व-चारित्र-पराङ्गमुख: ।।१४०।।
अन्वय :- परद्रव्ये रागत: द्वेषत: शुभाशुभं भावं कुर्वन् स्व-चारित्र-पराङ्गमुख: आत्मा अचारित्रं ।
सरलार्थ :- परद्रव्य में रागरूप परिणाम के कारण अथवा द्वेषरूप परिणाम के कारण शुभ अथवा अशुभरूप भाव को करता हुआ आत्मा मिथ्याचारित्री होता है; क्योंकि वह उस समय अपने चारित्र से अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र से विमुख रहता है ।
भावार्थ :- इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट समझने के लिये २९वें श्लोक में आया हुआ विमूढ: शब्द को यहाँ कर्तारूप से लेना चाहिए । जब अज्ञानी जीव परद्रव्य में प्रशस्त राग करता है तो शुभ अर्थात् पुण्यभाव होता है और जब द्वेष के कारण अशुभभाव करता है तो पापभाव होता है । जब ज्ञानी जीव अपनी भूमिका के अनुसार परद्रव्य में शुभाशुभ भाव करता है, तब उसे मिथ्याचारित्री नहीं कहते, उस परिणाम को भी ज्ञानभाव ही कहते हैं और उसे ज्ञानी की कमजोरी/ अचारित्र मानी जाती है । इस कमजोरीरूप पुण्य-पाप के कारण ज्ञानी को आस्रव-बंध तो होता है; लेकिन वह अनंत संसार का कारण नहीं होता । ज्ञानी जीव पुण्य-पाप परिणाम के समय भी अनन्तानुबंधी आदि कषायों के अभाव से शुद्धपरिणति रूप सतत रहने से स्वचारित्र से विमुख नहीं होता ।