योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 141
From जैनकोष
मिथ्याचारित्र का स्वरूप और स्पष्ट करते हैं -
यत: संपद्यते पुण्यं पापं वा परिणामत: ।
वर्तमानो ततस्तत्र भ्रष्टोsस्ति स्वचरित्रत: ।।१४१।।
अन्वय :- यत: (शुभ-अशुभ) परिणामत: पुण्यं वा पापं संपद्यते । तत: तत्र वर्तमान: स्वचारित्रत: भ्रष्ट: अस्ति ।
सरलार्थ :- क्योंकि शुभ और अशुभ परिणाम से पुण्य तथा पाप कर्म की उत्पत्ति होती है, इसलिए इन परिणामों में (उपादेय बुद्धि से) प्रवर्तमान आत्मा अपने चारित्र से भ्रष्ट होता है ।
भावार्थ :- मात्र पुण्य-पाप परिणामों से पुण्य-पापरूप कर्म की उत्पत्ति होना और पुण्य-पाप में प्रवर्तमान होने से ही स्वचारित्र से भ्रष्ट होना माना जाय तो साक्षात् अरहंत भगवान होने के लिये क्षपक श्रेणी के दसवें गुणस्थान में विराजमान महापुरुषार्थी भावलिंगी मुनिराज को भी स्वचारित्र से भ्रष्ट मानना अनिवार्य हो जायगा; क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती मुनिराज के परिणाम भी मिश्रभावरूप रहते हैं । (दसवें गुणस्थान में मुनिराज को वीतरागता के साथ सूक्ष्म लोभकषाय के उदय से अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्मलोभरूप राग-परिणाम होता है) इसलिए इस श्लोक के सरलार्थ करते समय ब्रॅकेट में दिये हुए `उपादेय बुद्धि से' - इन शब्दों को बारीकी से समझना आवश्यक है । जो कोई जीव पुण्य-पाप परिणामों में उपादेयबुद्धि रखता है, वही स्वचारित्र से भ्रष्ट है, ऐसा समझने से ही अर्थ यथार्थ होता है । अविरत सम्यक्दृष्टि से लेकर सर्व साधक/मोक्षमार्गी जीव अपने-अपने गुणस्थानानुसार स्वरूपाचरण में प्रवर्तमान हैं, ऐसा ही स्वीकारना चारों अनुयोगों के अनुसार उचित है । यहाँ मिथ्यादृष्टि जीव ही स्वचारित्र से भ्रष्ट है, यह समझाने का ग्रंथकार का अभिप्राय है ।