योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 145
From जैनकोष
सांसारिक सुख को सुख माननेवाला मिथ्याचारित्री है -
सांसारिकं सुखं सर्वं दु:खतो न विशिष्यते ।
यो नैव बुध्यते मूढ़: स चारित्री न भण्यते ।।१४५।।
अन्वय :- सांसारिकं सर्वं सुखं दु:खत: न विशिष्यते ।(एतत् तत्त्वं) य: न एव बुध्यते स: मूढ: चारित्री न भण्यते ।
सरलार्थ :- `संसार का सम्पूर्ण सुख और दु:ख - इनमें कोई अंतर नहीं', जो इस तत्त्व को नहीं समझता, वह मूढ़/मिथ्यादृष्टि चारित्रवान नहीं है; ऐसा समझना चाहिए ।
भावार्थ :- जो सांसारिक सुख को सुख समझता है, वह मिथ्यादृष्टि है । जिसकी श्रद्धा ही खोटी है, उसे चारित्र कैसे हो सकता है? क्योंकि यथार्थ श्रद्धा ही चारित्रादि सभी धर्मो का मूल है ।