योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 76
From जैनकोष
जीव का उपकार -
संसारवर्तिनोsन्योन्यमुपकारं वितन्वते ।
मुक्तास्तद्व्यतिरेकेण न कस्याप्युपकुर्वते ।।७५।।
अन्वय :- संसारवर्तिन: (जीवा:) अन्योन्यं उपकारं वितन्वते । मुक्ता: (जीवा:) तद् व्यतिरेकेण कस्यापि न उपकुर्वते ।
सरलार्थ :- संसारवर्ती/राग-द्वेष विकारों से अथवा आठ कर्मो से सहित जीव परस्पर एक- दूसरे का उपकार करते हैं अर्थात् सुख-दुख, जीवन-मरण आदि में परस्पर निमित्त होते हैं । मुक्त/ सिद्ध जीव संसार से भिन्न होने के कारण किसी का भी उपकार नहीं करते हैं ।