कौरव
From जैनकोष
पा.पु./सर्ग./श्लोक धृतराष्ट्र के दुर्योधनादि १०० पुत्र कौरव कहलाते थे (८/२१७) भीष्म व द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त कर (८/२०८) राज्य प्राप्त किया। (१०/३४)। अनेकों क्रिड़ाओं में इनको पाण्डवों द्वारा पराजित होना पडा था (१०/४०)। इससे यह पाण्डवों से क्रुद्ध हो गये। भरी सभा में एक दिन कहा कि हमें सौ को आधा राज्य और इन पाँचों को आधा राज्य दिया गया यह हमारे साथ अन्याय हुआ (१२/२५)। एक समय कपट से लाख का गृह बनाकर दिखावटी प्रेम से पाण्डवों को रहने के लिए प्रदान किया (१२/०) और अकस्मात् मौका देख उसमें आग लगवा दी। (१२/११५)। परन्तु सौभाग्य से पाण्डव वहाँ से गुप्त रूप से प्रवास में रहने लगे (१२/२३५)। और ये भी दिखावटी शोक करके शान्ति पूर्वक रहने लगे (१२/२२६)। द्रौपदी के स्वयंवर में पाण्डवों से मिलाप होने पर (१५/१४३) आधा राज्य बाँटकर रहने लगे (१६/२) दुर्योधन ने ईर्ष्यापूर्वक (१६/१४) युधिष्ठिर को जुएँ में हराकर १२ वर्ष का देश निकाला दिया (१६/१०५)। सहायवन में पाण्डवों के आने पर अर्जुन के शिष्यों ने दुर्योधन को बाँध लिया (१७/१०२–) परन्तु अर्जुन ने दया से उसे छोड़ दिया (१७/१४०)। इससे दुर्योधन का क्रोध अधिक प्रज्वलित हुआ। तब आधे राज्य के लालच में कनकध्वज नामक व्यक्ति ने दुर्योधन की आज्ञा से पाण्डवों को मारने की प्रतिज्ञा की, परन्तु एक देव ने उसका प्रयत्न निष्फल कर दिया (१७/१४५–)। तत्पश्चात् विराट् नगर में इन्होंने गोकुल लूटा उसमें भी पाण्डवों द्वारा हराये गये (१९/१५२)। इस प्रकार अनेकों बार पाण्डवों द्वारा इनको अपमानित होना पड़ा। अन्त में कृष्ण व जरासन्ध के युद्ध में सब पाण्डवों के द्वारा मारे गये (२०/२६६)।