छेद
From जैनकोष
- Section. (ज.प./प्र.१०६)
- छेद सामान्य का लक्षण
स.सि./७/२५/३६६/३ कर्णनासिकादीनामवयवानामपनयनं छेद:। =कान और नाक आदि अवयवों का भेदना छेद है। (रा.वा./७/२५/३/५५३/२०) - धर्मसम्बन्धी छेद का लक्षण
स्या.म./३२/३४२/२१ पर उद्धृत हरिभद्रसूरिकृत पञ्चवस्तुक चतुर्थद्वारका श्लो.नं.–‘‘बज्झाणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा। संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति।’’ =जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो, और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो उसे छेद कहते हैं। भ.आ./वि./६/३२/२१ असंयमजुगुप्सार्थमेव। असंयम के प्रति जुगुप्सा ही छेद है। - संयम सम्बन्धी छेद के भेद व लक्षण
प्र.सा./त.प्र./२११-२१२ द्विविध: किल संयमस्य छेद: बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च। तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्ग: उपयोगाधिकृत: पुनरन्तरङ्ग:।
प्र.सा./त.प्र./२१७ अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेद: परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्ग:। =संयम का छेद दो प्रकार का है; बहिरंग और अन्तरंग। उसमें मात्र कायचेष्टा सम्बन्धी बहिरंग है और उपयोग सम्बन्धी अन्तरंग।२११-२१२। अशुद्धोपयोग अन्तरंगछेद हैं; परप्राणों का व्यपरोप बहिरंगच्छेद है।