तप
From जैनकोष
तप नाम यद्यपि कुछ भयावह प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, यदि अन्तरंग वीतरागता व साम्यता की रक्षा व वृद्धि के लिए किया जाये तो तप एक महान् धर्म सिद्ध होता है, क्योंकि वह दु:खदायक न होकर आनन्द प्रदायक होता है। इसीलिए ज्ञानी शक्ति अनुसार तप करने की नित्य भावना भाते रहते हैं और प्रमाद नहीं करते। इतना अवश्य है कि अन्तरंग साम्यता से निरपेक्ष किया गया तप कायक्लेश मात्र है, जिसका मोक्षमार्ग में कोई स्थान नहीं। तप द्वारा अनादि के बँधे कर्म व संस्कार क्षणभर में विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए सम्यक् तप का मोक्षमार्ग में एक बड़ा स्थान है। इसी कारण गुरुजन शिष्यों के दोष दूर करने के लिए कदाचित् प्रायश्चित्त रूप में भी उन्हें तप करने का आदेश दिया करते हैं।
- भेद व लक्षण
- तप का निश्चय लक्षण।
- तप का व्यवहार लक्षण।
- श्रावक की अपेक्षा तप के लक्षण।
- तप के भेद-प्रभेद।
- कठिन-कठिन तप–देखें - कायक्लेश।
- बाह्य व आभ्यन्तर तप के लक्षण।
- तप विशेष–दे०वह वह नाम।
- पंचाग्नि तप का लक्षण पंचाचार–देखें - अग्नि।
- बाल तप का लक्षण।
- तप निर्देश
- तप भी संयम का एक अंग है।
- तप मतिज्ञान पूर्वक होता है।
- तप मनुष्यगति में ही सम्भव है।
- गृहस्थ के लिए तप करने का विधि-निषेध।
- तप शक्ति के अनुसार करना चाहिए।
- तप में फलेच्छा नहीं होनी चाहिए।
- पंचमकाल में तप की अप्रधानता।
- तप धर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ।
- बाह्याभ्यन्तर तप का समन्वय
- सम्यक्त्व सहित ही तप तप है
- सम्यक्त्व रहित तप अकिंचित्कर है।
- सम्यग् व मिथ्यादृष्टि की कर्म क्षपणा में अन्तर– देखें - मिथ्यादृष्टि / ४ ।
- संयम बिना तप निरर्थक है।
- तप के साथ चारित्र का स्थान– देखें - चारित्र / २ ।
- अन्तरंग तप के बिना बाह्य तप निरर्थक है।
- अन्तरंग सहित बाह्य तप कार्यकारी है।
- बाह्य तप केवल पुण्यबन्ध का कारण है।
- तप में बाह्य-आभ्यन्तर विशेषणों का कारण।–देखें - इनके लक्षण।
- बाह्य तपों को तप कहने का कारण।
- बाह्य-आभ्यन्तर तप का समन्वय।
- तप के कारण व प्रयोजनादि
- १-२ तप करने का उपदेश; तथा उस उपदेश का कारण।
- तप को तप कहने का कारण।
- तप से बल की वृद्धि होती है।
- तप निर्जरा व संवर दोनों का कारण है।
- तप में निर्जरा की प्रधानता–देखें - निर्जरा।
- तप दु:ख का कारण नहीं आनन्द का कारण है।
- तप की महिमा।
- शंका-समाधान
- देवादि पदों की प्राप्ति का कारण तप निर्जरा का कारण कैसे।
- तप की प्रवृत्ति में निवृत्ति का अंश ही संवर का कारण है– देखें - संवर / २ / ५ ।
- दु:ख प्रदायक तप से असाता का आस्रव होना चाहिए।
- तप से इन्द्रिय दमन कैसे होता है।
- तप धर्म भावना व प्रायश्चित्त निर्देश
- धर्म से पृथक् पुन: तप का निर्देश क्यों– देखें - निर्जरा / २ / ४ ।
- कायक्लेश तप व परिषहजय में अन्तर–देखें - कायक्लेश।
- शक्तितस्तप भावना का लक्षण
- शक्तितस्तप भावना में शेष १५ भावनाओं का समावेश
- शक्तितस्तप भावना से ही तीर्थंकर प्रकृति का संभव– देखें - भावना / २ ।
- तप प्रायश्चित्त का लक्षण।
- तप प्रायश्चित्त के अतिचार–दे०वह वह नाम।
- तप प्रायश्चित्त किस अपराध में तथा किसको दिया जाता है।– देखें - प्रायश्चित्त / ४ ।
- भेद व लक्षण
- तप का निश्चय लक्षण
- निरुक्तयर्थ
स.सि./९/६/४१२/११ कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तप:।=कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है। (रा.वा./९/६/१७/५९८/३); (त.सा./६/१८/३४४)।
रा.वा./९/१९/१८/६१९/३१ कर्मदहनात्तप:।२८। =कर्म को दहन अर्थात् भस्म कर देने के कारण तप कहा जाता है। पं.वि./१/९८ कर्ममलविलयहेतोर्बोधदृशा तप्यते तप: प्रोक्तम् ।=सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाले साधु के द्वारा जो कर्मरूपी मैल को दूर करने के लिए तपा जाता है उसे तप कहा गया है (चा.सा./१३३/४)। - आत्मनि प्रतपन:
बा.अ./७७ विसयकसायविणिग्गहभावं काउण झाणसिज्झीए। जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण।७७। =पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिए जो अपनी आत्मा का विचार करता है, उसके नियम से तप होता है।
प्र.सा./त.प्र./१४/१६/३ स्वरूपविश्रान्तनिस्तरङ्गचैतन्यप्रतपनाच्च...तप:। =स्वरूप विश्रान्त निस्तरंग चैतन्य प्रतपन होने से...तपयुक्त है। (प्र.सा./ता.वृ./७९/१००/१२); (द्र.सं./५२/२१९/३)। नि.सा./ता.वृ./५५,११८,१२३ सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तप:।५५। प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तप:।११८। आत्मानमात्मन्यात्मना संधत्त इत्यध्यात्मं तपनम् ।=सहज निश्चय नयात्मक परमस्वभावस्वरूप परमात्मा में प्रतपन सो तप है।५५। प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप...है।११८। आत्मा को आत्मा में आत्मा से धारण कर रखता है–टिका रखता है–जोड़ रखता है वह अध्या है और वह अध्यात्म सो तप है। - इच्छा निरोध
मोक्ष पञ्चाशत्/४८ तस्माद्वीर्यंसमुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदु:। बाह्यं वाक्कायसंभूतमान्तरं मानसं स्मृतम् ।४८। =वीर्य का उद्रेक होने के कारण से इच्छा निरोध को तप कहते हैं।...
ध.१३/५,४,२६/५४/१२ तिण्णं रयणाणमाविब्भावट्ठमिच्छाणिरोहो।=तीनों रत्नों को प्रगट करने के लिए इच्छानिरोध को तप कहते हैं। (चा.सा./१३३/४)। नि.सा./ता.वृ./६/१५ में उद्धृत...तवो विसयणिग्गहो जत्थ। =तप वह है जहाँ विषयों का निग्रह है।
प्र.सा./ता.वृ./७९/१००/१२ समस्तभावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तप:। =भावों में समस्त इच्छा के त्याग से स्व-स्वरूप में प्रतपन करना, विजयन करना सो तप है। द्र.सं./२१/६३/४ समस्तबहिर्द्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरण। =संपूर्ण बाह्य द्रव्यों की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण का धारक तपश्चरण। (द्र.सं./३६/१५१/७); (द्र.सं./५२/२१९/३)।
अन.ध./७/२/६५९ तपो मनोऽक्षकायाणां तपनात् संनिरोधनात् । निरुच्यते दृगाद्याविर्भावायेच्छानिरोधनम् ।२। =तप शब्द का अर्थ समीचीनतया निरोध करना होता है। अतएव रत्नत्रय का आविर्भाव करने के लिए इष्टानिष्ट इन्द्रिय विषयों की आकांक्षा के निरोध का नाम तप है। - चारित्र में उद्योग
भ.आ./मू./१० चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आउंजणा य जो होई। सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरंतस्स।१०।=चारित्र में जो उद्योग और उपयोग किया जाता है जिनेन्द्र भगवान् उसको ही तप कहते हैं।
- निरुक्तयर्थ
- तप का व्यवहार लक्षण
कुरल.का./२७/१ सर्वेषामेव जीवानां हिंसाया विरतिस्तथा। शान्त्या हि सर्वदु:खानां सहनं तप इष्यते।१।=शान्तिपूर्वक दु:ख सहन करना और जीवहिंसा न करना, बस इन्हीं में तपस्या का समस्त सार है। स.सि./६/२४/३३८/१२ अनिगूहीतवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तप:। शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना यथाशक्ति तप है। (रा.वा./६२/४/७/५२९)।
रा.वा./६/१९/२१/६१९/३३ देहस्येन्द्रिययाणां च तापं करोतीत्यनशनादि [अत:] तप इत्युच्यते। =देह और इन्द्रियों की विषय प्रवृत्ति को रोककर उन्हें तपा देते हैं। अत: ये तप कहे जाते हैं। रा.वा./६/२४/७/५२९/३२ यथाशक्ति मार्गाविरोधिकायक्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते।=अपनी शक्ति को न छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है। (चा.सा./१३३/३); (भा.पा./टी./७७/२२१/८)।
का.अ./मू./४०० इह-पर-लोय-सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम-भावो। विविहं काय-किलेसं तवधम्मो णिम्मलो तस्स।=जो समभावी इस लोक और परलोक के सुख की अपेक्षा न करके अनेक प्रकार का कायक्लेश करता है उसके निर्मल तपधर्म होता है। - श्रावक की अपेक्षा तप के लक्षण
प.पु./१४/२४२-२४३ नियमश्च तपश्चेति द्वयमेतन्न भिद्यते।२४२। तेन युक्तो जन: शक्त्या तपस्वीति निगद्यते। तत्र सर्वं प्रयत्नेन मति: कार्या सुमेधसा।२४३। =नियम और तप ये दो पदार्थ जुदे-जुदे नहीं हैं।२४२। जो मनुष्य नियम से युक्त है वह शक्ति के अनुसार तपस्वी कहलाता है। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को सब प्रकार से नियम अथवा तप में प्रवृत्त रहना चाहिए।२४३। पं.वि./६/२५ पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तप:। वस्त्रपूतं पिबेत्तोयं रात्रिभोजनवर्जनम् ।=श्रावक को पर्वदिनों (अष्टमी एवं चतुर्दशी आदि) में अपनी शक्ति के अनुसार भोजन के परित्याग आदि रूप (अनशनादि) तपों को करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें रात्रि भोजन को छोड़कर वस्त्र से छना हुआ जल भी पीना चाहिए। - तप के भेद-प्रभेद
- तप सामान्य के भेद
मू.आ./३४५ दुविहो य तवाचारो बाहिर अव्भंतरो मुणेयव्वो। एक्केक्को वि छद्धा जधाकम्मं तं परुवेमो।३४५। =तपाचार के दो भेद हैं–बाह्य, आभ्यन्तर। उनमें भी एक-एक के छह-छह भेद जानना। (स.सि./९/१९/४३८/२); (चा.सा./१३३/३); (रा.वा./९/१९ की उत्थानिका/६१८/११)। - बाह्य तप के भेद
त.सू./९/१९ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तप:।१९। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकार का बाह्य तप है। (मू.आ./३४६); (भ.आ./मू./२०८); (द्र.सं./५७/२२८)। - आभ्यन्तर तप के भेद
त.सू./९/२० प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ।२०। =प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है। (मू.आ./३६०) (द्र.सं./५७/२२८)।
- तप सामान्य के भेद
- बाह्य-आभ्यन्तर तप के लक्षण
स.सि./९/१९/४३९/३ बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् । स.सि./९/२०/४३९/६ कथमस्याभ्यन्तरत्वम् । मनोनियमनार्थत्वात् । =बाह्यतप बाह्यद्रव्य के अवलम्बन से होता है और दूसरों के देखने में आता है, इसलिए इसे बाह्य तप कहते हैं। (रा.वा./९/१९/१७-१८/६१९/२६) (अन.ध./७/६) और मन का नियमन करने वाला होने से प्रायश्चित्तादि को अभ्यंतर तप कहते हैं।रा.वा./९/१९/१९/६१९/२९ अनशनादि हि तीर्थ्यैर्गृहस्थैश्च क्रियते ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम् । रा.वा./९/२०/१-३/६२० अन्यतीर्थ्यानभ्यस्तत्वादुत्तरत्वम् ।१। अन्त:करणव्यापारात् ।२। बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वाच्च।३। =(उपरोक्त के अतिरिक्त) बाह्यजन अन्य मतवाले और गृहस्थ भी चूँकि इन तपों को करते हैं, इसलिए इनको बाह्य तप कहते हैं। (भ.आ./वि./१०७/२५८/३); (अन.ध./७/६) प्रायश्चित्तादि तप चूंकि बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं करते, अन्त:करण के व्यापार से होते हैं। अन्यमत वालों से अनभ्यस्त और अप्राप्तपार हैं अत: ये उत्तर अर्थात् अभ्यन्तर तप हैं।
भ.आ./वि./१०७/२५४/४ सन्मार्गज्ञा अभ्यन्तरा:। तदवगम्यत्वात् घटादिवत्तैराचरितत्वाद्वा बाह्याभ्यन्तरमिति। =रत्नत्रय को जानने वाले मुनि जिसका आचरण करते हैं, ऐसे तप आभ्यन्तर तप इस शब्द से कहे जाते हैं। अन.धइ/७/३३ बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्वसंवेद्यत्वत: परै:। अनध्यासात्तप: प्रायश्चित्ताद्यभ्यन्तरं भवेत् ।३३। =प्रायश्चित्तादि तपों में बाह्यद्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती है। अन्तरंग परिणामों की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है। ये देखने में नहीं आते तथा इसको अनार्हत लोग धारण नहीं कर सकते, इसलिए प्रायश्चित्तादि को अन्तरंग तप माना है। - बाल तप का लक्षण
स.सा./मू./१५२ परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्व वालतवं विंति सव्वण्हू।१५२। =परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तपों और व्रतों को सर्वज्ञदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं।
स.सि./६/२०/३३६/१ बालतपो मिथ्यादर्शनोपेतमनुपायकायक्लेशप्रचुरं निकृतिबहुलव्रतधारणम् ।=मिथ्यात्व के कारण मोक्षमार्ग में उपयोगी न पड़ने वाले कायक्लेश बहुल माया से व्रतों का धारण करना बालतप है। (रा.वा./६/२०/१/५२७/१८); (गो.क./जी.प्र./५४८/७१७/२३) रा.वा./६/१२/७/५१२/२८ यथार्थप्रतिपत्त्यभावादज्ञानिनो बाला मिथ्यादृष्टयादयस्तेषां तप: बालतप: अग्निप्रवेश-कारीष-साधनादि प्रतीतम् ।=यथार्थ ज्ञान के अभाव में अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के अग्निप्रवेश, पंचाग्नितप आदि तप को बालतप कहते हैं।
स.सा./आ./१५२ अज्ञानकृतयोर्व्रततप:कर्मणो: बन्धहेतुत्वाद्बालव्यपदेशेन प्रतिषिद्धत्वे सति। =अज्ञानपूर्वक किये गये व्रत, तप, आदि कर्मबन्ध के कारण हैं, इसलिए उन कर्मों को ‘बाल’ संज्ञा देकर उनका निषेध किया है।
- तप का निश्चय लक्षण
- तप निर्देश
- तप भी संयम का एक अंग है
भ.आ./मू./६/३२ संयममाराहंतेण तवो आराहिओ हवे णियमा। आराहंतेण तवं चारित्तं होइ भयणिज्जं।६। =जो चारित्र अर्थात् संयम की आराधना करते हैं उनको अवश्य ही नियम से तप की भी आराधना हो जाती है। और जो तप की आराधना करते हैं उनकी चारित्र की आराधना भजनीय होती है।
भ.आ./वि./६/३३/१ एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविरतिप्रमादकषायत्यजनरूपतया। इत्थं चारित्राराधनयोक्तया प्रत्येतु शक्त्या तपसाराधना...त्रयोदशात्मके चारित्रे सर्वथा प्रयतनं संयम: स च बाह्यतप संस्कारिताभ्यन्तरतपसा विना न संभवति। तदुपकृतात्मकत्वात्संयमस्वरूपस्येति। =अविरति, प्रमाद, कषायों का त्याग स्वाध्याय करने से तथा ध्यान करने से होता है इस वास्ते वे भी चारित्र रूप हैं। अत: सब तपों का चारित्राराधना में अन्तर्भाव हो जाता है।...तेरह प्रकार के चारित्र में सर्वथा प्रयत्न करना वह संयम है। वह संयम बाह्य व आभ्यन्तर तप से सुसंस्कृत होता है तब प्राप्त होता है उसके बिना नहीं होता। अत: संयम बाह्य व आभ्यन्तर तप से सुसंस्कृत होता है। पु.सि.उ./१९७ चारित्रान्तर्भावात् तपोऽसि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् । अनिगूहितानिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तै:। =जैन सिद्धान्त में चारित्र के अन्तर्वर्ती होने से तप भी मोक्ष का अंग कहा गया है अतएव अपने पराक्रम को नहीं छिपाने वाले तथा सावधान चित्तवाले पुरुषों को वह तप भी सेवन करने योग्य है। - तप मतिज्ञान पूर्वक होता है
ध. ९/४,१,५/५३/३ संपदि-सुद-मणपज्जवणाणत्तवाइं मदिणाणपुव्वा इदि। =अब श्रुत और मन:पर्ययज्ञान तथा तपादि चूँकि मतिज्ञानपूर्वक होते हैं। - तप मनुष्यगति में ही सम्भव है
ध.१३/५,४,३१/९१/५ णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभावादो। ...तिरिक्खेसु महव्वयाभावादो। =(नारकी, देव, तथा तिर्यंचों में तपकर्म नहीं होते) क्योंकि नारकी व देवों की औदारिक शरीर का उदय तथा पंचमहाव्रत नहीं होते तथा...तिर्यंचों में महाव्रत नहीं होते। - गृहस्थ के लिए तप करने का विधि निषेध
भ.आ./मू./७ सम्मादिट्ठिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि। होदि हु हत्थिण्हाणं चुंदच्चुदगं व तं तस्स।७। =अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुष का तप महान् उपकार करने वाला नहीं होता है, वह उसका तप हाथी के स्नान के सदृश होता है। अथवा बर्मा से जैसे छेद पाड़ते (करते) समय डोरी बाँधकर घुमाते हैं तो वह डोरी एक तरफ से खुलती है दूसरी तरफ से दृढ़ बँध जाती है। (मू.आ./९४०)।
सा.ध./७/५० श्रावको वीर्यचर्याह:-प्रतिमातापनादिषु। स्यान्नाधिकारी...।५०। =श्रावक वीर्यचर्या, दिन में प्रतिमायोग धारण करना आदि रूप मुनियों के करने योग्य कार्यों के विषय में ...अधिकारी नहीं है। और भी देखें - तप / १ / ३ । - तप शक्ति के अनुसार करना चाहिए
मू.आ./६६७ बलवीरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं। काओसग्गं कुज्जा इमे दु दोसे परिहरंतो।६६७। =बल और आत्मशक्ति का आश्रयकर क्षेत्र, काल, शरीर के संहनन–इनके बल की अपेक्षा कर कायोत्सर्ग के कहे जाने वाले दोषों का त्याग करता हुआ कायोत्सर्ग करे। (मू.आ./६७१)। अन.ध.५/६५ द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीर्यं समीक्ष्य च। स्वास्थ्याय वर्ततां सर्वविद्धशुद्धाशनै: सुधी:।६५। =विचारक साधुओं को आरोग्य और आत्मस्वरूप में अवस्थान करने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छह बातों का अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्धाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहार में प्रवृत्ति करना चाहिए। - तप में फलेच्छा नहीं होनी चाहिए
रा.वा./९/१९/१६/६१९/२४ इत्यत: सम्यग्ग्रहणमनुवर्त्तते, तेन दृष्टफलनिवृत्ति: कृता भवति सर्वत्र।= ‘सम्यक्’ पद की अनुवृत्ति आने से दृष्टफल निरपेक्षता का होना तपों में अनिवार्य है। - पंचमकाल में तप की अप्रधानता
म.प्र./४१/६६ करीन्द्रभारनिर्भुग्नपृष्ठस्याश्वस्य वीक्षणात् । कुत्स्नान् तपोगुणान्वोढुं नालं दुष्षमसाधव: ।६६। =भगवान् ऋषभदेव ने भरत चक्रवर्ती के स्वप्नों का फल बताते हुए कहा कि ‘‘बड़े हाथी से उठाने योग्य बोझ से जिसकी पीठ झुक गयी है, ऐसे घोड़े के देखने से मालूम होता है कि पंचमकाल के साधु तपश्चरण के समस्त गुणों को धारण करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे।’’ - तप धर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ
भ.आ./मू./१४५३,१४६२ अप्पा य वञ्चिओ तेण होई विरियं च गूहीयं भवदि। सुह सीलदाए जीवो बंधदि हु असादवेदणीयं।१४५३। संसारमहाडाहेण उज्झमाणस्स होइ सीयधरं। सुत्तवोदाहेण जहा सीयधरं उज्झमाणस्स।१४६२।=शक्त्यनुरूप तप में जो प्रवृत्ति नहीं करता है, उसने अपने आत्मा को फँसाया है और अपनी शक्ति भी छिपा दी है ऐसा मानना चाहिए, सुखासक्त होने से जीव को असाता वेदनीय का अनेक भव में तीव्र दु:ख देने वाला, तीव्र पापबंध होता है।१४५३। जैसे सूर्य की प्रचंड किरणों से संतप्त मनुष्य का शरीरदाह धारागृह से नष्ट होता है वैसे संसार के महादाह से दग्ध होने वाले भव्यों के लिए तप जलगृह के समान शान्ति देने वाला है। तप में सांसारिक दु:ख निर्मूलन करना यह गुण है ऐसा यह गाथा कहती है। (भ.आ./टी./१४५०-१४७५); (पं.वि./१/९८-१००)
देखें - तप / ० / ४ / ७ (तप की महिमा अपार है। जो तप नहीं करता वह तृण के समान है।)
- तप भी संयम का एक अंग है
- बाह्यभ्यन्तर तप का समन्वय
- सम्यक्त्व सहित ही तप, तप है
मो.मा./मू./५९ तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। =जो ज्ञान तप रहित है, और जो तप है सो भी ज्ञान रहित है तौ दोऊही अकार्य है।
का.अ./१०२ बारस-विहेण तवसा णियाण-रहियस्स णिज्जरा होदि। वेरग्ग-भावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स।१०२। =निदान रहित, निरभिमानी, ज्ञानी पुरुष के वैराग्य की भावना से अथवा वैराग्य और भावना से बारह प्रकार के तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है। - सम्यक्त्व रहित तप अकिंचित्कर है
नि.सा./मू./१२४ किं काहदि वणवासो कायकलेसो विचित उववासो। अज्झयमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स।१२४।=वनवास, कायक्लेश रूप अनेक प्रकार के उपवास, अध्ययन मौन आदि समता रहित मुनि को क्या करते हैं–क्या लाभ करते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं।द.पा./मू./५ सम्मत्तविरहियाणं सुट्ठ वि उग्गं तवं चरंताणं। ण लहंति वोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं।५। सम्यक्त्व बिना करोड़ों वर्ष तक उग्र तप भी तपै तो भी बोधि की प्राप्ति नाहीं (मो.पा./५७,५९); (र.सा./१०३), (मू.आ./९००)। मो.पा./९९ किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि वहुविहं च खवणं तु। किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो।९९।=आत्मस्वभावतैं विपरीत प्रतिकूल बाह्यकर्म जो क्रियाकांड सो कहा करैगा ? कछू मोक्ष का कार्य तौ किंचिन्मात्र भी नाहीं करैगा, बहूरि अनेक प्रकार क्षमण कहिए उपवासादिक कहा करैगा ? आतापनयोगादि कायक्लेश कहा करैगा ? कछू भी नांहीं करैगा।
स.श./३३ यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् । लभते स न निर्वाणं तप्त्वापि परमं तप:।३३। =जो अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता है, वह घोर तपश्चरण करके भी मोक्ष को नहीं प्राप्त करता है (ज्ञा./३२/४७)। यो.सा.अ./६/१० बाह्यमाभ्यन्तरं द्वेधा प्रत्येकं कुर्वता तप:। नैनो निर्जीर्यते शुद्धमात्मतत्त्वमजानता।१०। =जो पुरुष शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं जानता है वह चाहै बाह्य आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप करे वा एक प्रकार का करै, कभी कर्मों की निर्जरा नहीं कर सकता।
पं.वि./१/६७ कालत्रये बहिरवस्थितिजातवर्षाशीतातपप्रमुखसंघटितोग्रदु:खे। आत्मप्रबोधविकले सकलोऽपि कायक्लेशो वृथा वृतिरिवोज्झितशालिवप्रे।६७। =साधु जिन तीन कालों में घर छोड़कर बाहिर रहने से उत्पन्न हुए वर्षा शैत्य और धूप आदि के तीव्र दु:ख को सहता है वह यदि उन तीन कालों में अध्यात्म ज्ञान से रहित होता है तो उसका यह सब ही कायक्लेश इस प्रकार व्यर्थ होता है जिस प्रकार कि धान्यांकुरों से रहित खेतों में बाँसों या काँटों आदि से बाढ़ का निर्माण करना।६७। (पं.वि./१/५०)। - संयम बिना तप निरर्थक है
शी.पा./मू./५ संजमहीणो य तवो जइ वरइ णिरत्थयं सव्वं।५। =बहुरि संयमरहित तप होय सो निरर्थक है। एसैं ए आचरण करै तो सर्व निरर्थक है (मू.आ./७७०)।
मू.आ./९४० सम्मदिट्ठिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि। होदि हु हत्थिण्हाणं चुंदच्छिदकम्म तं तस्स।९४०। =संयम रहित तप...महान् उपकारी नहीं। उसका तप हस्तिस्नान की भाँति जानना, अथवा दही मथने की रस्सी की तरह जानना। (भ.आ./मू./७)। भ.आ./मू./७७० ...संजमहीणो य तवो जो कुणदि णिरत्थयं कुणदि। =संयम रहित तप करना निरर्थक है, अर्थात् उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।
- अंतरंग तप के बिना बाह्य तप निरर्थक है
प.प्र./मू./१९१ घोरु करंतु वि तवचरणु सयल वि सत्थ मुणंतु। परमसमाहिविवज्जियउ णवि देक्खइ सिउ संतु।१९१। =घोर तपश्चरण करता हुआ भी और सब शास्त्रों को जानता हुआ भी जो परम समाधि से रहित है वह शान्तरूप शुद्धात्मा को नहीं देख सकता।
भ.आ./वि./१३४८/१३०६/१ यद्धि यदर्थं तत्प्रधानं इति प्रधानताभ्यन्तरतपस:। तच्च शुभशुद्धपरिणामात्मकं तेन विना न निर्जरायै बाह्यमलम् । =आभ्यन्तर तप के लिए बाह्य तप है। अत: आभ्यन्तर तप प्रधान है। यह आभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणामों से युक्त रहता है इसके बिना बाह्य तप कर्म निर्जरा करने में असमर्थ है। स.सा./आ./२०४/क.१४२ क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखै: कर्मभि:, क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपो भारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं, ज्ञानं ज्ञानगुणं बिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते नहि।१४२। =कोई जीव दुष्करतर और मोक्ष से पराङ्मुख कर्मों के द्वारा स्वयमेव क्लेश पाते हैं तो पाओ और अन्य कोई जीव महाव्रत और तप के भार से बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश प्राप्त करें तो करो, जो साक्षात् मोक्ष स्वरूप है, निरामय पद है, और स्वयं संवेद्यमान है, ऐसे इस ज्ञान को ज्ञानगुण के बिना किसी भी प्रकार से वे प्राप्त नहीं कर सकते।
ज्ञा./२२/१४/२३४ मन:शुद्धयैव शुद्धि: स्याद्देहिनां नात्र संशय:। वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।१४। =नि:सन्देह मन की शुद्धि से ही जीवों के शुद्धता होती है, मन की शुद्धि के बिना केवल काय को क्षीण करना वृथा है (ज्ञा./२२/२८)। आचारांग/१११ अति करोतु तप: पालयतु संयमं पाठतु सकलशास्त्राणि। यावन्न ध्यात्यात्मानं तावन्न मोक्षो जिनो भणति।
आ.सा./५४/१२९ सकलशास्त्रं सेवितां सूरिसंघान् दृढयतु च तपश्चाभ्यस्तु स्फीतयोगं। चरतु विनयवृत्तिं बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलास: सर्वमेतन्न किंचित् ।=- अति तप भी करे, संयम का पालन भी करे, और सकल शास्त्रों का अध्ययन भी करे, परन्तु जब तक आत्मा को नहीं ध्याता है, तब तक मोक्ष नहीं होती है ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है।११।
- सकल शास्त्र को पढ़े, आचार्य के संघ को दृढ़ करे, और निश्चल योगकर तपश्चरण भी करे, विनय वृत्ति धारण करे, तथा समस्त विश्व के तत्त्वों को भी जाने, परन्तु यदि विषय विलास है तो ये सर्व निरर्थक हैं। मो.मा.प्र./७/३४०/१ जो बाह्य तप तो करै अर अन्तरंग तप न होय, तौ उपचार तै भी वाकों तप संज्ञा नहीं।
मो.मा.प्र./७/३४२/८ वीतराग भावरूप तप को न जानैं अर इन्हीं को तप जानि संग्रह करै तो संसार ही में भ्रमै।
- अंतरंग सहित ही बाह्य तप कार्यकारी है
ध.१३/५,४,२६/५५/३ ण च चउव्विहआहारपरिच्चागो चेव अणेसणं, रागादिहिं सह तच्चागस्स अणेसभावब्भुवगमादो। =पर इसका (अनशनादि का) यह अर्थ नहीं कि चारों प्रकार के आहार का त्याग ही अनेषण कहलाता है क्योंकि रागादिक के साथ ही उन चारों के (चार प्रकार का आहार) त्याग को अनेषण रूप से स्वीकार किया है। - बाह्य तप केवल पुण्य बन्ध का कारण है
ज्ञा./८/७/४३ सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेण वानिशम् । संचिनोति शुभं कर्म काययोगेन संयमी।७। =भले प्रकार गुप्त रूप किये हुए, अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए काय से तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभकर्म को संचय करते हैं। - बाह्य तपों को तप कहने का कारण
अन.ध./७/५,८ देहाक्षतपनात्कर्मदहनादान्तरस्य च। तपसो वृद्धिहेतुत्वात् । स्यात्तपोऽनशनादिकम् ।५। बाह्यैस्तपोभि: कायस्य कर्शनादक्षमर्दने। छिन्बबाहो भट इव विक्रामति कियन्मन:।८। =अनशनादि तप इसलिए हैं कि इनके होने पर शरीर इन्द्रियाँ उद्रिक्त नहीं हो सकतीं किन्तु कृश हो जाती हैं। दूसरे इनके निमित्त से सम्पूर्ण अशुभकर्म अग्नि के द्वारा ईंधन की तरह भस्मसात् हो जाते हैं। तीसरे आभ्यन्तर प्रायश्चित्त आदि तपों के बढ़ाने में कारण हैं।५। बाह्य तपों के द्वारा शरीर का कर्षण हो जाने से इन्द्रियों का मर्दन हो जाता है, इन्द्रिय दलन से मन अपना पराक्रम किस तरह प्रगट कर सकता है कैसा भी योद्धा हो प्रतियोद्धा द्वारा अपना घोड़ा मारा जाने पर अवश्य निर्बल हो जायेगा। मो.मा.प्र./७/३४०/१ बाह्य साधन भए अन्तरंग तप की वृद्धि हो है। तातै उपचार करि इनको तप कहै हैं। - बाह्य अभ्यन्तर तप का समन्वय
स्व.स्तो./८३ बाह्यं तप: परमदुश्चरमाचरंस्त्व-माध्यात्मिकस्य तपस: परिबृंहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन्, ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने।३। =आपने आध्यात्मिक तप की परिवृद्धि के लिए परम दुश्चर बाह्य तप किया है। और आप आर्तरौद्र रूप दो कलुषित ध्यानों का निराकरण करके उत्तरवर्ती दो सातिशय ध्यानों में प्रवृत्त हुए हैं। (भ.आ./वि./१३४८/१३०६/१)।
भ.आ./मू./१३५० लिंगं च होदि आब्भंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी। भिउडोकरणं लिंगं जहसंतो जदकोधस्स।१३५०। =अभ्यंतर परिणाम शुद्धि का अनशनादि बाह्य तप चिह्न है। जैसे किसी मनुष्य के मन में जब क्रोध उत्पन्न होता है, तब उसकी भौंहे चढ़ती हैं इस प्रकार इन तपों में लिंग लिंगी भाव है। द्र.सं./टी./५७/२२८/११ द्वादशविधं तप:। तेनैव साध्यं शुद्धात्मस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्च। =बारह प्रकार का तप है। उसी (व्यवहार) तप से सिद्ध होने योग्य निज शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजय करने रूप निश्चय तप है।
मो.मा.प्र./७/३४०/१ बाह्य साधन होते अंतरंग तप की वृद्धि होती है। इससे उपचार से उसको तप कहते हैं। परन्तु जो बाह्य तप तो करै अर अंतरंग तप न होय तो उपचार से भी उसको तप संज्ञा प्राप्त नहीं।
- सम्यक्त्व सहित ही तप, तप है
- तप के कारण व प्रयोजनादि
- तप करने का उपदेश
मो.पा./मू./६० धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि।६०। =आचार्य कहै है–देखो जाकै नियमकरि मोक्ष होनी है अर च्यार ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय इनिकरि युक्त है ऐसा तीर्थंकर है सो भी तपश्चरण करै है, ऐसे निश्चय करि जानि ज्ञान करि युक्त होते भी तप करना योग्य है। - तप के उपदेश का कारण
भ.आ./मू./१९१/२३७-२४५ पुव्चमकारिदजोग्गो समाधिकामो तहा मरणकाले। ण भवदि परीसहसहो विसयसुहपरम्मुहो जीवो।१९१। सो णाम वाहिरतवो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि। जेण य सड्डा जायदि जेण य जोगा ण हायंति।२३६। बाहिरतवेण होदि हु सव्वा सुहसीलदा परिच्चत्ता। सल्लिहिद च सरीरं ठविदो अप्पा य संवेगे।२३७।=यदि पूर्व काल में तपश्चरण नहीं किया होय तो मरण काल में समाधि की इच्छा करता हुआ भी परीषहों को सहन नहीं करता है, अत: विषय सुखों में आसक्त हो जाता है।१९१। जिस तप के आचरण से मन दुष्कर्म के प्रति प्रवृत्त नहीं होता है, तथा जिसके आचरण से अभ्यन्तर प्रायश्चित्तादि तपों में श्रद्धा होती है जिसके आचरण से पूर्व के धारण किये हुए व्रतों का नाश नहीं होता है, उसी तप का अनुष्ठान करना योग्य है।२३६। तप से सम्पूर्ण सुख स्वभाव का त्याग होता है। बाह्य तप करने से शरीर सल्लेखना के उपाय की प्राप्ति होती है और आत्मा संसार भीरुता नामक गुण में स्थिर होता है। (भ.आ./मू./१९३) (भ.आ./मू.१८८)।
मो.पा./मू.६२ सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहावलं जोई अप्पा दुक्खेहिं भावए।६२। =जो सुखकरि भाया हुआ ज्ञान है सो उपसर्ग परीषहादिक करि दुखकू उपजतैं नष्ट हो जाय है तातै यह उपदेह है जो योगी ध्यानी मुनि है सो तपश्चरणादिक के कष्ट दुखसहित आत्माकूं भावै। (स.रा./मू./१०२) (ज्ञा./३२/१०२/३३४)। अन.ध./७/१ ज्ञाततत्त्वोऽपि वैतृष्ण्यादृते नाप्नोति तत्पदम् । ततस्तत्सिद्धये धीरस्तपस्तप्येत नित्यश:।१। तत्त्वों का ज्ञाता होने पर भी, वीतरागता के बिना अनन्तचतुष्टय रूप परम पद को प्राप्त नहीं हो सकता। अत: वीतरागता की सिद्धि के अर्थ धीर वीर साधुओं को तप का नित्य ही संचय करना चाहिए। - तप को तप कहने का कारण
रा.वा./९/१९/२०-२१/६१९/३१ यथाग्नि: संचितं तृणादि दहति तथा कर्म मिथ्यादर्शनाद्यर्जितं निर्दहतीति तप इति निरुच्यते।२०। देहेन्द्रियतापाद्वा।२१। =जैसे-अग्नि संचित तृणादि ईन्धन को भस्म कर देती है उसी तरह अनशनादि अर्जित मिथ्यादर्शनादि कर्मों का दाह करते हैं। तथा देह और इन्द्रियों की विषय प्रवृत्ति रोककर उन्हें तपा देते हैं अत: ये तप कहे जाते हैं। - तप से बल की वृद्धि होती है
ध.९/४,१,२२/८९/१ आघादाउआ वि छम्मासोववासा चेव होंति, तदुवरि संकिलेसुप्पत्तीदो त्ति ण तवोबलेणुप्पण्णविरियंतराइयक्खओवसमाणं तब्बलेणेव मंदीकथासादावेदणीओदयाणमेस णियमो तस्थ तव्विरोहादो। =प्रश्न–अघातायुष्क भी छह मास तक उपवास करने वाले ही होते हैं, क्योंकि इसके आगे संक्लेश उत्पन्न हो जाता है ? उत्तर–...तप के बल से उत्पन्न हुए वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से संयुक्त तथा उसके बल से ही असाता वेदनीय के उदय को मन्द कर चुकने वाले साधुओं के लिए यह नियम नहीं है। क्योंकि उनमें इसका विरोध है। - तप निर्जरा व संवर का कारण है
त.सू./९/३ तपसा निर्जरा च।३। =तप से संवर और निर्जरा होती है।
रा.वा./८/२३/७/५८४ पर उद्धृत–कायमणोवचिगुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अणेयविहं। सो कम्मणिज्जराए विपुलाए वट्टदे मणुस्सोत्ति। =काय, मन और वचन गुप्ति से युक्त होकर जो अनेक प्रकार के तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जरा को करता है। न.वि./मू./३/५४/३३७ तपसश्च प्रभावेण निर्जीर्ण कर्म जायते।५४। तप के प्रभाव से कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं।
देखें - निर्जरा / २ / ४ [तप निर्जरा का ही नहीं संवर का भी कारण है।]। - तप दुख का कारण नहीं आनन्द का कारण है
स.श./३४ आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृत:। तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते।३४। = आत्म और शरीर के भेद-विज्ञान से उत्पन्न हुए आनन्द से जो आनन्दित है वह तप के द्वारा उदय में लाये हुए भयानक दुष्कर्मों के फल को भोगता हुआ भी खेद को प्राप्त नहीं होता है। इ.उ./४८ आनन्दो निर्दहत्युद्धं कर्मेन्धनमनारतम् । न चासौ खिद्यते योगी बहिर्दु:खेष्वेचेतन:।४८। =वह परमानन्द सदा आनेवाली कर्म रूपी ईंधन को जला डालता है। उस समय ध्यान मग्न योगी के बाह्य पदार्थों से जायमान दुखों का कुछ भी भान न होने के कारण कोई खेद नहीं होता।
ज्ञा./३२/४८/३२४ स्वपरान्तरविज्ञानसुधास्पन्दाभिनन्दित:। खिद्यते न तप: कुर्वन्नपि क्लेशै: शरीरजै:।४८। =भेद-विज्ञानी मुनि आत्मा और पर के अन्तर्भेदी विज्ञानरूप अमृत के वेग से आनन्दरूप होता हुआ व तप करता हुआ भी शरीर से उत्पन्न हुए खेद क्लेशादि से खिन्न नहीं होता है।४८। - तप की महिमा
भ.आ./मू./१४७२-१४७३ तं णत्थि जं ण लब्भइ तवसा सम्मं कएण पुरिसस्स। अग्गीव तणं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी।१४७२। सम्मं कदस्स अपरिस्सवस्स ण फलं तवस्स वण्णेदुं। कोई अत्थि समत्थे जस्स वि जिब्भासयसहस्सं।१४७३।=निर्दोष तप से जो प्राप्त न होगा ऐसा पदार्थ जगत में है नहीं। अर्थात् तप से पुरुष को सर्व उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है। जैसे प्रज्वलित अग्नि तृण को जलाती है वैसे तपरूप अग्नि कर्म रूप तृण को जलाती है।१४७२। उत्तम प्रकार से किया गया और कर्मास्रव रहित तप का फल वर्णन करने में जिसको हजार जिह्वा हैं ऐसा भी कोई शेषादि देव समर्थ नहीं है। (भ.आ./मू./१४५०-१४७५)। कुरल०/२७/७ यथा भवति तीक्ष्णाग्निस्तथैवोज्ज्वलकाञ्चनम् । तपस्येवं यथाकष्टं मन:शुद्धिस्तथैव हि।७। =सोने को जिस आग में पिघलाते हैं वह जितनी ही तेज होती है, सोने का रंग उतना ही अधिक उज्ज्वल निकलता है। ठीक इसी तरह तपस्वी जितने ही बड़े कष्टों को सहता है उसके उतने ही अधिक आत्मिक भाव निर्मल होते हैं।
आराधना सार/७/२९ निकाचितानि कर्माणि तावद्भस्मवन्ति न। यावत्प्रवचने प्रोक्तस्तपोवह्निर्न दीप्यते।७। =निकाचित कर्म तब तक भस्म नहीं होते हैं, जब तक कि प्रवचन में कही गयी तप रूपी अग्नि दीप्त नहीं होती है। रा.वा./९/६/२७/५९९/२२ तप: सर्वार्थसाधनम् । तत एव ऋद्धय: संजायन्ते। तपस्विभिरध्युषितान्येव क्षेत्राणि लोके तीर्थतामुपगतानि। तद्यस्य न विद्यते स तृणाल्लघुर्लक्ष्यते। मुञ्चन्ति तं सर्वे गुणा:। नासौ मुञ्चति संसारम् ।=तप से सभी अर्थों की सिद्धि होती है। इससे ऋद्धियों की प्राप्ति होती है। तपस्वियों की चरणरज से पवित्र स्थान ही तीर्थ बने हैं। जिसके तप नहीं वह तिनके से भी लघु है। उसे सब गुण छोड़ देते हैं वह संसार से मुक्त नहीं हो सकता।
आ.अनु/११४ इहैव सहजान् रिपून् विजयते प्रकोपादिकान्, गुणा: परिणमन्ति यानसुभिरप्ययं वाञ्छति। पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचिरात्स्वयं यायिनी, नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि।११४। =इसके अतिरिक्त वह तप इसी लोक में क्षमा, शान्ति, एवं विशिष्ट ऋद्धि आदि दुर्लभ गुणों को भी प्राप्त कराता है। वह चूँकि परलोक मोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध कराता है अतएव वह परलोक में भी हित का साधक है। इस प्रकार विचार करके जो विवेकी जीव हैं वे उभयलोक के सन्ताप को दूर करने वाले उस तप में अवश्य प्रवृत्त होते हैं। पं.वि./१/९९-१०० कषायविषयोद्भटप्रचुरतस्करौघो हठात् तप:–सुभटताडितो विघटते यतो दुर्जय:। अतो हि निरुपद्रवश्चरति तेन धर्मश्रिया, यति: समुपलक्षित: पथि विमुक्तिपुर्या: सुखम् ।९९। मिथ्यात्वादेर्यदिह भविता दु:खमग्नं तपोभ्यो, जातं तस्मादुदककणिकैकेव सर्वाब्धिनीरात् । स्तोकं तेन प्रभवमखिलं कृच्छ्रलब्धे नरत्वे, यद्येतर्हि स्खलति तदहो का क्षतिर्जीव ते स्यात् ।१००। =जो क्रोधादि कषायों और पंचेन्द्रिय विषयोंरूपी उद्भट एवं बहुत से चोरों का समुदाय बड़ी कठिनता से जीता जा सकता है वह चूँकि तपरूपी सुभट के द्वारा बलपूर्वक ताडित होकर नष्ट हो जाता है। अतएव उस तप से तथा धर्मरूपी लक्ष्मी से संयुक्त साधु मुक्तिरूपी नगरी के मार्ग में सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं से रहित होकर सुखपूर्वक गमन करता है।९९। लोक में मिथ्यात्व आदि के निमित्त से जो तीव्र दुख प्राप्त होने वाला है उसकी अपेक्षा तप से उत्पन्न होने वाला दुख इतना अल्प होता है कि समु्द्र के सम्पूर्ण जल की अपेक्षा उसकी एक बूंद होती है। उस तप से सब कुछ आविर्भूत हो जाता है। इसलिए हे जीव ! कष्ट से प्राप्त होने वाली मनुष्य पर्याय प्राप्त होने पर भी यदि तुम तप से भ्रष्ट होते हो तो फिर तुम्हारी कौन-सी हानि होगी। अर्थात् सब लुट जायेगी।१००।
- तप करने का उपदेश
- शंका समाधान
- देवादि पदों की प्राप्ति का कारण तप निर्जरा का कारण कैसे
रा.वा./९/३/४-५/५१३ तपसोऽभ्युदयहेतुत्वान्निर्जराङ्गत्वाभाव इति चेत्, न; एकस्यानेककार्यारम्भदर्शनात् ।४। गुणप्रधानफलोपपत्तेर्वा कृषीवलवत् ।५। यथा कृषीवलस्य कृषिक्रियाया: पलालशस्यफलगुणप्रधानफलाभिसंबन्ध: तथा मुनेरपि तपस्क्रियाया: प्रधानोपसर्जनाभ्युदयनिश्रेयसफलाभिसंबन्धोऽभिसन्धिवशाद् वेदितव्य:।=प्रश्न–तप देवादि स्थानों की प्राप्ति का कारण होने से निर्जरा का कारण नहीं हो सकता ? उत्तर–एक कारण से अनेक कार्य होते हैं। जैसे एक ही अग्नि पाक और भस्म करना आदि अनेक कार्य करती है। अथवा जैसे किसान मुख्यरूप से धान्य के लिए खेती करता है, पयाल तो उसे यों ही मिल जाता है। उसी तरह मुख्यत: तप क्रिया कर्मक्षय के लिए है, अभ्युदय की प्राप्ति तो पयाल की तरह आनुषंगिक ही है, गौण है। किसी को विशेष अभिप्राय से उसकी सहज प्राप्ति हो जाती है। - दुख प्रदायक तप से तो असाता का आस्रव होना चाहिए
रा.वा./६/११/१६-२०/५२१/१९ स्यादेतत्-यदि दु:खाधिकरणमसद्वेद्यहेतु:, ननु नाग्न्यलोचानशनादितप:करणं दु:खहेतुरिति तदनुष्ठानोपदेशनं स्वतीर्थकरस्य विरुद्धम्, तदविरोधे च दु:खादीनामसद्वेद्यास्रवस्यायुक्तिरिति; तन्न; किं कारणम् ।...यथा अनिष्टद्रव्यसंपर्काद् द्वेषोत्पतौ दु:खोत्पत्ति: न तथा बाह्याभ्यन्तरतप:प्रवृत्तौ धर्मध्यानपरिणतस्य यतेरनशनकेशलुञ्चनादिकरणकारणापादितकायक्लेशेऽस्ति द्वेषसंभव: तस्मान्नासद्वेद्यबन्धोऽस्ति। क्रोधाद्यावेशे हि सति स्वपरोभयदु:खादीनां पापास्रवहेतुत्वमिष्टं न केवलानाम् ।...तथा अनादिसांसारिकजातिजरामरणवेदनाजिघांसां प्रत्यागूर्णो यति: तदुपाये प्रवर्तमान: स्वपरस्य दु:खादिहेतुत्वे सत्यपि क्रोधाद्यभावात् पापस्याबन्धक:। =प्रश्न–यदि दुख के कारणों से असाता वेदनीय का आस्रव होता है तो नग्न रहना केशलुंचन और अनशन आदि तपों का उपदेश भी दुख के कारणों का उपदेश हुआ? उत्तर–क्रोधादि के आवेश के कारण द्वेषपूर्वक होने वाले स्व पर और उभय के दुखादि पापास्रव के हेतु होते हैं न कि स्वेच्छा से आत्मशुद्धयर्थ किये जाने वाले तप आदि। जैसे अनिष्ट द्रव्य के सम्पर्क की द्वेषपूर्वक दुख उत्पन्न होता है उस तरह बाह्य और अभ्यंतर तप की प्रवृत्ति में धर्म ध्यान परिणत मुनि के अनशन केशलुंचनादि करने या कराने में द्वेष की सम्भावना नहीं है अत: असाता का बन्ध नहीं होता।...अनादि कालीन सांसारिक जन्म मरण की वेदना को नाश करने की इच्छा से तप आदि उपायों में प्रवृत्ति करने वाले यति के कार्यों में स्वपर-उभय में दुखहेतुता दीखने पर भी क्रोधादि न होने के कारण पाप का बन्धक नहीं होता। (स.सि./६/११/३२९/९) - तप से इन्द्रिय दमन कैसे होता है
भ.आ./वि./१८८/४०६/५ ननु चानशनादौ प्रवृत्तस्याहारदर्शने तद्वार्ताश्रवणे तदासेवाया चादरो नितान्तं प्रवर्तते ततोऽयुक्तमुच्यते तपोभावनया दान्तानीन्द्रियाणीति। इन्द्रियविषयरागकोपपरिणामानां कर्मास्रवहेतुतया अहितत्वप्रकाशनपरिज्ञानपुर:सरतपोभावनया विषयसुखपरित्यागात्मकेन अनशनादिना दान्तानि भवन्ति इन्द्रियाणि। पुन: पुन: सेव्यमानं विषयसुखं रागं जनयति। न भावनान्तरान्तर्हितमिति मन्यते। =प्रश्न–उपवासादि तपों में प्रवृत्त हुए पुरुष को आहार के दर्शन से और उसकी कथा सुनने से, उसको भक्षण करने की इच्छा उत्पन्न होती है। अत: तपोभावना से इन्द्रियों का दमन होता है। यह कहना अयोग्य है ? उत्तर–इन्द्रियों के इष्टानिष्ट स्पर्शादि विषयों पर आत्मा रागी और द्वेषी जब होता है तब उसके राग द्वेष परिणाम कर्मागमन के हेतु बनते हैं। ये राग जीवन का अहित करते हैं, ऐसा सम्यग्ज्ञान जीव को बतलाता है। सम्यग्ज्ञान युक्त तपोभावना से जो कि विषय सुखों का त्यागरूप और अनशनादि रूप है, इन्द्रियों का दमन करती हैं। पुन: पुन: विषय सुख का सेवन करने से राग भाव उत्पन्न होता है परन्तु तपोभावना से जब आत्मा सुसंस्कृत होता है तब इन्द्रियाँ विषय सुख की तरफ दौड़ती नहीं हैं।
- देवादि पदों की प्राप्ति का कारण तप निर्जरा का कारण कैसे
- तपधर्म, भावना व प्रायश्चित्त निर्देश
- शक्तितस्तप भावना का लक्षण
स.सि./६/२४/३३८/१२ अनिगूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि कायक्लेशस्तप:। =शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना यथाशक्ति तप है। (भा.पा./टी./७७-२२१) (चा.सा./५४/३)
रा.वा./६/२४/७/५२९/३० शरीरमिदं दु:खकारणमनित्यमशुचि, नास्य यथेष्टभोगविधिना परिपोषो युक्त:, अशुच्यपीदं गुणरत्नसंचयोपकारीति विचिन्त्य विनिवृत्तविषयसुखाभिष्वङ्गस्य स्वकार्यं प्रत्येतद्भृतकमिव नियुञ्जानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधि कायक्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते। =अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना तप है। यह शरीर दु:ख का कारण है, अशुचि है, कितना भी भोग भोगो पर इसकी तृप्ति नहीं होती। यह अशुचि होकर भी शीलव्रत आदि गुणों के संचय में आत्मा की सहायता करता है यह विचारकर विषय विरक्त हो आत्म कार्य के प्रति शरीर का नौकर की तरह उपयोग कर लेना उचित है। अत: मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना यथाशक्ति तप भावना है। - एक शक्तितस्तप में ही १५ भावनाओं का समावेश
ध.८/३,४१/८६/११ जहाथामतवे सयलसेसतित्थयरकारणाण संभवादो, जदो जहाथामो णाम ओघबलस्स धीरस्स णाणदंसणकलिदस्स होदि। ण च तत्थ दंसणविसुज्झदादीणमभावो, तहा तवंतस्स अण्णहाणुववत्तीदो।’’ =प्रश्न–(शक्तितस्तप में शेष भावनाएँ कैसे संभव हैं ? उत्तर–यथाशक्ति तप में तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध के सभी शेष कारण सम्भव हैं, क्योंकि, यथाथाम तप ज्ञान, दर्शन से युक्त सामान्य बलवान और धीर व्यक्ति के होता है, और इसलिए उसमें दर्शनविशुद्धतादिकों का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर यथाथाम तप बन नहीं सकता। - तप प्रायश्चित्त का लक्षण
ध.८/५,४,२६/६१/५ खवणायंविलणिव्वियडि न पुरिमंडलेयट्ठाणाणि तवो णाम। =उपवास, आचाम्ल, निर्विकृति, और दिवस के पूर्वार्ध में एकासन तप (प्रायश्चित्त) है। चा.सा./१४२/५ सव्वादिगुणालंकृतेन कृतापराधेनोपवासैकस्थानाचाम्लनिर्विकृत्यादिभि: क्रियमाणं तप इत्युच्यते। =जो शारीरिक व मानसिक बल आदि गुणों से परिपूर्ण हैं, और जिनसे कुछ अपराध हुआ है ऐसे मुनि उपवास, एकासन, आचाम्ल आदि के द्वारा जो तपश्चरण करते हैं उसे तप प्रायश्चित्त कहते हैं।
स.सि./९/२२/४४०/८ अनशनावमौदर्यादिलक्षणं तप:। =अनशन, अवमौदर्य आदि करना तप प्रायश्चित्त है। (रा.वा./९/२२/७/६२१/२९)।
- शक्तितस्तप भावना का लक्षण