दु:षमा-दु:षमा
From जैनकोष
अवसर्पिणी काल का छठा भेद । इसका काल इक्कीस हजार वर्ष का होता है । इस काल के आरम्भ में मनुष्यों की आयु बीस वर्ष तथा शरीर की अवगाहना दो हाथ होगी । काल के अन्त में आयु घटकर सोलह वर्ष तथा शरीर की ऊँचाई एक हाथ रह जायेगी । इस समय लोग स्वेच्छाचारी, स्वच्छन्द विहारी और एक दूसरे को मारकर जीवनयापी होंगे । सर्वत्र दु:ख ही दुःख होगा । पद्मपुराण 20.82, 103-106, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.122-124 इस समय पानी सूख जायगा, पृथिवी अत्यन्त रूखी-सूखी होकर जगह-जगह फट जावेगी, वृक्ष सूख जावेंगे, प्रलय होगा, गंगा-सिन्धु और विजयार्ध की वेदिका पर कुछ थोड़े से महापुराण विश्राम लेंगे, वे मछली, मेढक, कछुए और केंकडे खाकर जीवित रहेंगे और बहत्तर कुलों में उत्पन्न दुराचारी दीन-हीन जीव छोटे-छोटे बिलों में घुसकर जीवनयापन करेंगे । महापुराण 76.447-450 उत्सर्पिणी का प्रथम काल भी इसी नाग का है । इसकी स्थिति भी इक्कीस हजार वर्ष की होती है, इसमें प्रजा की वृद्धि होती है, पृथिवी रूक्षता छोड़ देती है । क्षीर जाति के मेघों के बाद अमृत जाति के मेघ इस काल में बरसते हैं जिससे औषधियां, वृक्ष, पौधे और घास पूर्ववत् होने लगते हैं । इसके पश्चात् रसाधिकजाति के मेघ बरसने से छहों रसों की उत्पत्ति होती है । बिलों में प्रविष्ट मनुष्य बाहर आ जाते हैं । वे उत्पन्न रसों का उपयोग कर हर्षपूर्वक जाते हैं । इस प्रकार काल-क्रम का ह्रास वृद्धि में परिणत होने लगता है । महापुराण 3. 17-18, 76.454-259