ध्यान
From जैनकोष
शारीरिक निस्पृहतापूर्वक किया गया अन्तिम आभ्यंतर तप । इसमें तन्मय होकर चित्त को एकाग्र किया जाता है । यह वज्रवृषभनाराचसंहनन वालों के भी अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है । योग, समाधि, धीरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्तःसंलीनता इसके पर्यायवाची नाम है । शुभाशुभ परिणामों के कारण इसके प्रशस्त और अप्रशस्त दो भेद हैं । इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं । इनमें प्रशस्त ध्यान के भेद हैं― धर्म और शुक्लध्यान तथा अप्रशस्त ध्यान के भेद हैं—आर्त और रौद्र ध्यान । इन चारों में आर्त और रौद्र हेय हैं क्योंकि वे खोटे ध्यान है, संसार के बहाने वाले हैं तपा धर्म और शुक्लध्यान उपादेय है । वे मुक्ति के साधन है । महापुराण 5.153, 20.189, 202-203, 21.8,12, 27.29, पद्मपुराण 14.116 हरिवंशपुराण 56.2-3