निद्रा
From जैनकोष
- निद्रा व निद्राप्रकृति निर्देश
- पाँच प्रकार की निद्राओं के लक्षण
स.सि./८/७/३८३/५ मदखेदक्लमविनोदनार्थ: स्वापो निद्रा। तस्या उपर्युपरि वृत्तिर्निद्रानिद्रा। या क्रियात्मानं प्रचलयति सा प्रचला शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगात्रविक्रियासूचिका। सैव पुनपुरावर्तमाना प्रचलाप्रचला। स्वप्ने यथा वीर्यविशेषाविर्भाव: सा स्त्यानगृद्धि:। स्त्यायतेरनेकार्थत्वात्स्वप्नार्थ इह गृह्यते गृद्धेरपि दीप्ति:। स्त्याने स्वप्ने गृद्धयति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्रं बहुकर्म करोति सा स्त्यानगृद्धि:। =मद, खेद और परिश्रमजन्य थकावट को दूर करने के लिए नींद लेना निद्रा है। उसकी उत्तरोत्तर अर्थात् पुन: पुन: प्रवृत्ति होना निद्रानिद्रा है। जो शोकश्रम और मद आदि के कारण उत्पन्न हुई है और जो बैठे हुए प्राणी के भी नेत्र-गात्र की विक्रिया की सूचक है, ऐसी जो क्रिया आत्मा को चलायमान करती है, वह प्रचला है। तथा उसी की पुन: पुन: प्रवृत्ति होना प्रचला-प्रचला है। जिसके निमित्त से स्वप्न में वीर्यविशेष का आविर्भाव होता है वह स्त्यानगृद्धि है। स्त्यायति धातु के अनेक अर्थ हैं। उनमें से यहाँ स्वप्न अर्थ लिया गया है और ‘गृद्धि’ दीप्यते जो स्वप्न में प्रदीप्त होती है ‘स्त्यानगृद्धि’ का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है–स्त्याने स्वप्ने गृद्धयति धातु का दीप्ति अर्थ लिया गया है। अर्थात् जिसके उदय से आत्मा रौद्र बहुकर्म करता है वह स्त्यानगृद्धि है। (रा.वा./८/७/२-६/५७२/६); (गो.क./जी.प्र./३३/२७/१०)। - पाँचों निद्राओं के चिह्न
- निद्रा के चिह्न
ध.६/१,९-१,१६/३२/३,६ णिद्दाए तिव्वोदएण अप्पकालं सुवइ, उट्ठाविज्जंतो लहु उट्ठेदि, अप्पसद्देण वि चेअइ। ...णिद्दाभरेण पडंतो लहु अप्पाणं साहारेदि, मणा मणा कंपदि, संचेयणो सुवदि। =निद्रा प्रकृति के तीव्र उदय से जीव अल्पकाल सोता है, उठाये जाने पर जल्दी उठ बैठता है और अल्प शब्द के द्वारा भी सचेत हो जाता है। निद्रा प्रकृति के उदय से गिरता हुआ जीव जल्दी अपने आपको सँभाल लेता है, थोड़ा-थोड़ा काँपता रहता है और सावधान सोता है।
ध.१३/५,५,८५/८ जिस्से पयडीए उदएण अद्धजगंतओ सोवदि, धूलीए भरिया इव लोयणा होंति गुरुवभारेणोट्ठद्धं व सिरमइभारियं होइ सा णिद्दा णाम। =जिस प्रकृति के उदय से आधा जागता हुआ सोता है, धूलि से भरे हुए के समान नेत्र हो जाते हैं, और गुरुभार को उठाये हुए के समान शिर अति भारी हो जाता है, वह निद्रा प्रकृति है। गो.क./मू./२४/१६ णिद्दुदये गञ्छंतो ठाइ पुणो वइसइ पडेई। =निद्रा के उदय से मनुष्य चलता चलता खड़ा रह जाता है, और खड़ा खड़ा बैठ जाता है अथवा गिर पड़ता है। - निद्रानिद्रा के चिह्न
ध.६/१,९-१;१६/३१/९ तत्थ णिद्दाणिद्दाए तिव्वोदएण रुक्खग्गे विसमभूमीए जत्थ वा तत्थ वा देसे घोरं तो अघोरंतो वा णिब्भरं सुवदि। =निद्रानिद्रा प्रकृति के तीव्र उदय से जीव वृक्ष के शिखर पर, विषम भूमि पर, अथवा जिस किसी प्रदेश पर घुरघुराता हुआ या नहीं घुरघुराता हुआ निर्भर अर्थात् गाढ़ निद्रा में सोता है।
ध.१३/५,५,८५/३५४/३ जिस्से पयडीए उदएण अइणिब्भरं सोवदि, अण्णेहिं अट्ठाव्विज्जंतो वि ण उट्ठइ सा णिद्दाणिद्दा णाम। =जिस प्रकृति के उदय से अतिनिर्भर होकर सोता है, और दूसरों के द्वारा उठाये जाने पर भी नहीं उठता है, वह निद्रानिद्रा प्रकृति है। गो.क./मू./२३/१६ णिद्दाणिद्दुदयेण य ण दिट्ठिमुग्धादिदं सक्को। =निद्रानिद्रा के उदय से जीव यद्यपि सोने में बहुत प्रकार सावधानी करता है परन्तु नेत्र खोलने को समर्थ नहीं होता। - प्रचला के चिह्न
ध.६/१,९-१;१६/३२/४ पयलाए तिव्वोदएण वालुवाए भरियाइं व लोयणाइं होंति, गुरुवभारोड्ढव्वं व सीसं होदि, पुणो पुणो लोयणाइं उम्मिल्ल-णिमिल्लणं कुणंति। =प्रचला प्रकृति के तीव्र उदय से लोचन वालुका से भरे हुए के समान हो जाते हैं, सिर गुरुभार को उठाये हुए के समान हो जाता है और नेत्र पुन: पुन: उन्मीलन एवं निमीलन करने लगते हैं।
ध.१३/५,५,८५/३५४/९ जिस्से पयडीए उदएण अद्धसुत्तस्स सीसं मणा मणा चलदि सा पयला णाम। =जिस प्रकृति के उदय से आधे सोते हुए का शिर थोड़ा-थोड़ा हिलता रहता है, वह प्रचला प्रकृति है। गो.क./मू./२५/१७ प्रचलुदयेण य जीवो ईसुम्मीलिय सुवेइ सुत्तोवि। ईसं ईसं जाणादि मुहुं मुहुं सोवदे मंदं।२५। प्रचला के उदय से जीव किंचित् नेत्र को खोलकर सोता है। सोता हुआ कुछ जानता रहता है। बार बार मन्द मन्द सोता है। अर्थात् बारबार सोता व जागता रहता है। - प्रचला-प्रचला के चिह्न
ध./६/१,९-१,१६/३१/१० पयलापयलाए तिव्वोदएण वइट्ठओ वा उब्भवो वा मुहेण गलमाणलालो पुणो पुणो कंपमाणसरीर-सिरो णिब्भरं सुवदि। =प्रचलाप्रचला प्रकृति के तीव्र उदय से बैठा या खड़ा हुआ मुँह से गिरती हुई लार सहित तथा बार-बार कपते हुए शरीर और शिर-युक्त होता हुआ जीव निर्भर सोता है।
ध.१३/५,५,८५/३५४/४ जिस्से उदएण ट्ठियो णिसण्णो वि सोवदि गहगहियो व सीसं धुणदि वायाहयलया व चदुसु वि दिसासु लोट्टदि सा पयलापयला णाम। =जिसके उदय से स्थित व निषण्ण अर्थात् बैठा हुआ भी सो जाता है, भूत से गृहीत हुए के समान शिर धुनता है, तथा वायु से आहत लता के समान चारों ही दिशाओं में लोटता है, वह प्रचला-प्रचला प्रकृति है। गो.क./मू./२४/१६ पयलापयलुदयेण य वहेदि लाला चलंति अंगाइं। =प्रचलाप्रचला के उदय से पुरुष मुख से लार बहाता है और उसके हस्त पादादि चलायमान हो जाते हैं। - स्त्यानगृद्धि के चिह्न
ध.६/१,९-१,१६/३२/१ थीणगिद्धीए तिव्वोदएण उट्ठाविदो वि पुणो सोवदि, सुत्तो वि कम्मं कुणदि, सुत्तो वि झंक्खइ, दंते कडकडावेइ। =स्त्यानगृद्धि के तीव्र उदय से उठाया गया भी जीव पुन: सो जाता है, सोता हुआ भी कुछ क्रिया करता रहता है, तथा सोते हुए भी बड़बड़ाता है और दाँतों को कड़कड़ाता है।
ध.१३/५,५,८५/५ जिस्से णिद्दाए उदएण जंतो वि थंभियो व णिच्चलो चिट्ठदि, ट्ठियो वि वइसदि, वइट्ठओ वि णिवज्जदि, णिवण्णओ वि उट्ठाविदो वि ण उट्ठदि, सुत्तओ चेव पंथे हवदि, कसदि, लणदि, परिवादिं कुणदि सा थीणगिद्धी णाम। = जिस निद्रा के उदय से चलता चलता स्तम्भित किये गये के समान निश्चल खड़ा रहता है, खड़ा खड़ा भी बैठ जाता है, बैठकर भी पड़ जाता है, पड़ा हुआ भी उठाने पर भी नहीं उठता है, सोता हुआ भी मार्ग में चलता है, मारता है, काटता है और बड़बड़ाता है वह स्त्यानगृद्धि प्रकृति है। गो.क./मू./२३/१६ थीणुदयेणुट्ठविदे सोवदि कम्मं करेदि जप्पदि य। =स्त्यानगृद्धि के उदय से उठाया हुआ सोता रहता है तथा नींद ही में अनेक कार्य करता है, बोलता है, पर उसे कुछ भी चेत नहीं हो पाता।
- निद्रा के चिह्न
- निद्राओं का जघन्य व उत्कृष्ट काल व अन्तर
ध.१५/पृ./पंक्ति णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणमुदीरणाए कालो जहण्णेण एगसमओ। कुदो। अद्रधुवोदयादो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। एवं णिद्दापयलाणं पि वत्तव्वं। (६१/१४)। णिद्दा पयलाणमंतरं जहण्णमुक्कस्सं पि अंतोमुहुत्तं। णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणमं-तरं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि साहियाणि अंतोमुहुत्तेण। (६८/४)। =निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि की उदीरणा का काल जघन्य से एक समय है; क्योंकि, ये अध्रुवेदयी प्रकृतियाँ हैं। उनकी उदीरणा का काल उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसी प्रकार से निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के उदीरणाकाल का कथन करना चाहिए। (६१/१४)। निद्रा और प्रचला की उदीरणा का अन्तरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त मात्र है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगृद्धि का व अन्तरकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त से अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है।
- पाँच प्रकार की निद्राओं के लक्षण
- साधुओं के लिए निद्रा का निर्देश
- क्षितिशयन मूलगुण का लक्षण
मू.आ./३२ फासुयभूमिपएसे अप्पमसथारिदम्हि पच्छण्णे। दंडंधणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एयपासेण।३२। =जीवबाधारहित, अल्पसंस्तर रहित, असंयमी के गमनरहित गुप्तभूमि के प्रदेश में दण्ड के समान अथवा धनुष के समान एक कर्वट से सोना क्षितिशयन मूलगुण है। अनु.ध./९/९१/९२१ अनुत्तानोऽनवाङ् स्वप्याद्भूदेशेऽसंस्तृते स्वयम् । स्वमात्रे संस्तृतेऽल्पं वा तृणादिशयनेऽपि वा। =तृणादि रहित केवल भूमिदेश में अथवा तृणादि संस्तर पर, ऊर्ध्व व अधोमुख न होकर किसी एक ही कर्वट पर शयन करना क्षितिशयन है। - प्रमार्जन पूर्वक कर्वट लेते हैं
भ.आ./मू./९६/२३४ इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे। उव्वत्तणपरिवत्तण पसारणा उटणायरसे।९६। =शरीर के मल मूत्रादि को फेंकते समय, बैठते-खड़े होते व सोते समय, हाथ-पाँव पसारते या सिकोड़ते समय, उत्तानशयन करते समय या करवट बदलते समय, साधुजन अपना शरीर पिच्छिका से साफ़ करते हैं। - योग निद्रा विधि
मू.आ./७९४ सज्झायज्झाणजुत्ता रत्तिं ण सुवंति ते पयामं तु। सुत्तत्थं चिंतंता णिद्दाय वसं ण गच्छंति।७९४। =स्वाध्याय व ध्यान से युक्त साधु सूत्रार्थ का चिन्तवन करते हुए रात्रि को निद्रा के वश नहीं होते हैं। यदि सोवें तो पहला व पिछला पहर छोड़कर कुछ निद्रा ले लेते हैं।७९४।
अन.ध./९/७/८५१ क्लमं नियम्य क्षणयोगनिद्रया लातं निशीथे घटिकाद्वयाधिके। स्वाध्यायमत्यस्य निशाद्विनाडिकाशेषे प्रतिक्रम्य च योगमुत्सृजेत् ।७। =मन को शुद्ध चिद्रूप में रोकना योग कहलाता है। ‘रात्रि को मैं इस वस्तिकाय में ही रहूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा को योगनिद्रा कहते हैं। अर्धरात्रि से दो घड़ी पहले और दो घड़ी पीछे का, ये चार घड़ी काल स्वाध्याय के अयोग्य माना गया है। इस अल्पकाल में साधुजन शरीरश्रम को दूर करने के लिए जो निद्रा लेते हैं उसे क्षणयोगनिद्रा समझना चाहिए। देखें - कृतिकर्म / ४ / ३ / १ –(योगनिद्रा प्रतिष्ठापन व निष्ठापन के समय साधु को योगिभक्ति पढ़नी चाहिए)।
- क्षितिशयन मूलगुण का लक्षण
- अन्य सम्बन्धित विषय
- पाँच निद्राओं को दर्शनावरण कहने का कारण।– देखें - दर्शनावरण / ४ / ६ ।
- पाँचों निद्राओं व चक्षु आदि दर्शनावरण में अन्तर।– देखें - दर्शनावरण / ८ ।
- निद्रा प्रकृतियों का सर्वघातीपना।– देखें - अनुभाग / ४ ।
- निद्रा प्रकृतियों की बन्ध, उदय सत्त्वादि प्ररूपणाएँ।–दे०वह वह नाम।
- अति संक्लेश व विशुद्ध परिणाम सुप्तावस्था में नहीं होते।– देखें - विशुद्धि / १० ।
- निद्राओं के नामों में द्वित्व का कारण।–देखें - दर्शनावरण।
- जो निजपद में जागता है वह परपद में सोता है।– देखें - सम्यग्दृष्टि / ४ ।