नियम
From जैनकोष
- रत्नत्रय के अर्थ में
नि.सा./मू./३,१२० णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदं सणचरित्तम् ।३। सुहअसुहवयणरयणं रायादिभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो फायदि तस्स दु णियमं हवे णियमा।१२०। =नियम अर्थात् नियम से जो करणे योग्य हो वह अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र।३। शुभाशुभवचनरचना का और रागादि भावों का निवारण करके, जो आत्मा को ध्याता है, उसको निश्चित रूप से नियम है।१२०।
नि.सा./ता.वृ./गा. नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते।१। य:...स्वभावनन्तचतुष्टयात्मक: शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम: स नियम:। नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।३। नियमेन स्वात्माराधनातत्परता।१२३। =नियम शब्द सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में वर्तता है। जो स्वभावानन्तचतुष्टयात्मक शुद्धज्ञान चेतनापरिणाम है वह नियम है। नियम से अर्थात् निश्चय से जो किया जाने योग्य है अर्थात् प्रयोजनस्वरूप है ऐसा ज्ञानदर्शनचारित्र नियम है। निज आत्मा की आराधना में तत्परता सो नियम है। - वचनरूप नियम स्वाध्याय है
नि.सा./मू./१५३ वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चक्खाणं णियमं च। आलोयणवयणमयं तं सव्वं जाण सज्झाउं। =वचनमयी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना ये सब स्वाध्याय जानो। - सावधि त्याग के अर्थ में
र.क.श्रा./८७-८९ नियम: परिमितकालो।८७। भोजनवाहनशयनस्नानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु। ताम्बूलवसमनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु।८८। अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथार्तुरयनं वा। इति कालपरिच्छित्त्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:।८९। जिस त्याग में काल की मर्यादा है वह नियम कहलाता है।८७। भोजन, सवारी, शयन, स्नान, कंकुमादिलेपन, पुष्पमाला, ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत इन विषयों में–आज, एकदिन, एकरात, एकपक्ष, एकमास तथा दो मास, अथवा छहमास इस प्रकार काल के विभाग से त्याग करना सो नियम है। (सा.ध./५/१४)। रा.वा./१/७/३/५३३/१५ इदमेवेत्थमेव वा कर्तव्यमित्यन्यनिवृत्ति: नियम:। =’यह ही तथा ऐसा ही करना है’ इस प्रकार अन्य पदार्थ की निवृत्ति को नियम कहते हैं।
प.पु./१४/२०२ मधुतो मद्यतो मांसात् द्यूततो रात्रिभोजनात् । वेश्यासंगमनाच्चास्य विरतिर्नियम: स्मृत:।२०२। =गृहस्थ मधु, मद्य, मांस, जूआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागम से जो रिक्त होता है, उसे नियम कहा है।