नील
From जैनकोष
रा.वा./३/११/७-८/१८३/२१–नीलेन वर्णेन योगात् पर्वतो नील इति व्यपदिश्यते। संज्ञा चास्य वासुदेवस्य कृष्णव्यपदेशवत् । क्व पुनरसौ। विदेहरम्यकविनिवेशविभागी।८। =नील वर्ण होने के कारण इस पर्वत को नील कहते हैं। वासुदेव की कृष्ण संज्ञा की तरह यह संज्ञा है। यह विदेह और रम्यक क्षेत्र की सीमा पर स्थित है। विशेष देखें - लोक / ३ / ४ ।
- नील पर्वत पर स्थित एक कूट तथा उसका रक्षकदेव– देखें - लोक / ५ / ४ ;
- एक ग्रह–देखें - ग्रह ;
- भद्रशाल वन में स्थित एक दिग्गजेन्द्र पर्वत– देखें - लोक / ५ / ३ ;
- रुचक पर्वत के श्रीवृक्ष कूट पर रहने वाला एक दिग्गजेन्द्र देव– देखें - लोक / ५ / १३ ;
- उत्तरकुरु में स्थित १० द्रहों में से एक– देखें - लोक / ५ / ६ ;
- नील नामक एक लेश्या–देखें - लेश्या ;
- पं.पु./अधि/श्लो.नं.–सुग्रीव के चचा किष्कुपुर के राजा ऋक्षराज का पुत्र था। (९/१३)। अन्त में दीक्षित हो मोक्ष पधारे। (११९/३९)।