पुरुषार्थवाद
From जैनकोष
गो.क./मू./८९० आलसड्ढो णिरुच्छाहो फलं किंचिं ण भुंजदे। थणक्खीरादिपाणं वा पउरुसेण विणा ण हि। ८९०। = आलस्यकरि संयुक्त होय उत्साह उद्यम रहित होइ सौ किछूं भी फल को भोगवै नाहीं। जैसे - स्तन का दूध उद्यम ही तै पीवने में आवै है पौरुष विना पीवने में न आवै। तैसे सर्व पौरुष करि सिद्धि है, ऐसा पौरुषवाद है। ८९०।