पूजा
From जैनकोष
राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए जिन पूजा प्रधान धर्म है, यद्यपि इसमें पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है, पर तहाँ अपने भाव ही प्रधान हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिक के भेद से वह अनेक प्रकार की है और जल चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से की जाती है। अभिषेक व गान नृत्य आदि के साथ की गयी पूजा प्रचुर फलप्रदायी होती है। सचित्त व अचित्त द्रव्य से पूजा, पंचामृत व साधारण जल से अभिषेक, चावलों की स्थापना करने व न करने आदि सम्बन्धी अनेकों मतभेद इस विषय में दृष्टिगत हैं, जिनका समन्वय करना ही योग्य है।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम।
- पूजा के भेद -
- इज्यादि ५ भेद;
- नाम स्थापनादि ६।
- इज्यादि पाँच भेदों के लक्षण।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण।
- निश्चय पूजा के लक्षण।
- पूजा के पर्यायवाची नाम।
- पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।
- * सावद्य होते हुए भी पूजा करनी चाहिए।- देखें - धर्म / ५ / २ ।
- * सम्यग्दृष्टि पूजा क्यों करें?- देखें - विनय / ३ ।
- * प्रोषधोपवास के दिन पूजा करे या न करे- देखें - प्रोषध / ४ ।
- * पूजा की कथंचित् इष्टता-अनिष्टता।- देखें - धर्म / ४ -६।
- नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश।
- पूजा में अन्तरंग भावों की प्रधानता।
- जिन पूजा का फल निर्जरा व मोक्ष।
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।
- * जिन पूजा सम्यग्दर्शन का कारण है- देखें - सम्यग्दर्शन / III / ५ ।
- पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
- एक जिन या जिनालय की वन्दना से सबकी वन्दना हो जाती है।
- एक की वन्दना से सबकी वन्दना कैसे हो जाती है?
- देव व शास्त्र की पूजा में समानता।
- साधु व प्रतिमा भी पूज्य हैं।
- साधु की पूजा से पाप कैसे नाश होता है।
- सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी पूज्य नहीं- देखें - विनय / ४ ।
- एक जिन या जिनालय की वन्दना से सबकी वन्दना हो जाती है।
- देव तो भावों में है मूर्ति में नहीं।
- फिर मूर्ति को क्यों पूजते हैं।
- पूजा योग्य प्रतिमा- देखें - चैत्य चैत्यालय / १ ।
- एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प।
- पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि-निषेध।
- बाहुबलि की प्रतिमा सम्बन्धी शंका समाधान।
- क्षेत्रपाल आदि की पूजा का निषेध- देखें - मूढता।
- पूजा योग्य द्रव्य विचार
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेक का प्रयोजन व फल।
- पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि।
- सचित्त द्रव्यों आदि से पूजा का निर्देश।
- चैत्यालय में पुष्प वाटिका लगाने का विधान- देखें - चैत्य चैत्यालय / २ ।
- सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजा का समन्वय।
- निर्माल्य द्रव्य के ग्रहण का निषेध।
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- पूजा विधि
- पूजा के पाँच अंग होते हैं।
- पूजा दिन में तीन बार करनी चाहिए।
- एक दिन में अधिक बार भी वन्दना करे तो निषेध नहीं- देखें - वन्दना।
- रात्रि को पूजा करने का निषेध।
- चावलों में स्थापना करने का निषेध।
- स्थापना के विधि निषेध का समन्वय।
- पूजा के साथ अभिषेक व नृत्य गानादि का विधान।
- द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य है।
- पूजा विधान में विशेष प्रकार का क्रियाकाण्ड।
- पूजा विधान में प्रयोग किये जानेवाले कुछ मन्त्र- देखें - मन्त्र।
- पूजा में भगवान को कर्ता-हर्ता बनाना- देखें - भक्ति / १ ।
- पंच कल्याणक- देखें - कल्याणक।
- देव वन्दना आदि विधि- देखें - वन्दना।
- स्तव विधि- देखें - भक्ति / ३ ।
- पूजा में कायोत्सर्ग आदि की विधि- देखें - वन्दना।
- पूजा से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए।
- पूजा के प्रकरण में स्नान विधि- देखें - स्नान।
- पूजा के पाँच अंग होते हैं।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम
म. पु./६७/१९३ यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः। १९३। = याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। १९३।
- पूजा के भेद
- इज्या आदि की अपेक्षा
म.पु./३८/२६ प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च। २६। = पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक। (ध.८/३,४२/९२/४) (इसके अतिरिक्त एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है, जिसे इन्द्र किया करता है तथा और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे इन्हीं भेदों में अन्तर्भूत हैं। (म.पु./३८/३२-३३); (चा.सा./४३/१); (सा.ध./१/१८; २/२५-२९)।
- निक्षेपों की अपेक्षा
वसु. श्रा./३८१ णाम-ट्ठवणा-दव्वे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं। ३८१। = नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेन्द्रदेव ने कही है। ३८१। (गुण.श्रा./२१२)।
- द्रव्य व भाव की अपेक्षा
भ.आ./वि./४७/१५९/२० पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति। = पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद हैं।
- इज्या आदि की अपेक्षा
- इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण
म.पु./३८/२७-३३ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानार्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका। २७। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्। २८। या च पूजाः मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः। २९। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि। ३०। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः। ३१। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानैन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः। ३२। बलिस्नपनमित्यन्यः त्रिसन्ध्यासेवया समम्। उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम्। ३३। = प्रतिदिन अपने घर से गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेन्द्र देव की पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है। २७। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हन्त देव की प्रतिमा और मन्दिर का निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान भी देना सदार्चन कहलाता है। २८। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है, उसे भी नित्यमह समझना चाहिए। २९। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है। ३०। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के सर्व जीवों की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं, वह कल्पद्रुम नाम का यज्ञ कहलाता है। ३१। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इन्द्र किया करता है। (चा.सा./४३/२); (सा.ध./२/२५-२९)। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीन सन्ध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे उन्हीं भेदों में अन्तर्भूत हैं। ३२-३३।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण
- नामपूजा
वसु.श्रा./३८२ उच्चारिऊण णामं अरुहाईणंविसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं खिविज्जंति वण्णिया णामपूया सा। ३८२। = अरहन्तादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं वह नाम पूजा जानना चाहिए। ३८२। (गुण.श्रा./२१३)।
- स्थापना पूजा
वसु.श्रा./३८३-३८४ सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा। ३८३। अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए। संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असब्भावा। ३८४। = जिन भगवान् ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना यह दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में अरहन्तादि के गुणों का जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव स्थापना पूजा है। और अक्षत्, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भाव पूजा जानना चाहिए। ३८३-३८४। (गुण.श्रा./२१४-२१५)।
- द्रव्यपूजा
भ.आ./वि./४७/१५९/२१ गन्धपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाद्युद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणसंस्तवनं च। = अर्हदादिकों के उद्देश्य से गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना, यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खड़े होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया करना, वचनों से अर्हदादिक के गुणों को स्तवन करना, यह भी द्रव्य-पूजा है। (अ.ग.श्रा./१२/१२)।
वसु. श्रा./४४८-४५१ दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा। दव्वेण गंध-सलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा। ४४८। तिविहा दव्वे पूजा सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्गं। ४४९। तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा। जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा। ४५०। अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं। णाऊण दव्वपूजा कायव्वा सुत्तमग्गेण। ४५१। = जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल गन्धादि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूह से करना चाहिए। ४४८। (अ.ग.श्रा./१२१३) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन तीथकर आदि के शरीर की और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है और जो दोनों की पूजा की जाती है, वह मिश्रपूजा जानना चाहिए। ४४९-४५०। अथवा आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्य निक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए। ४५१। (गुण.श्रा./२१९-२२१)।
- क्षेत्रपूजा
वसु. श्रा./४५२ जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा। = जिन भगवान् की जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है। ४५२। (गुण.श्रा./२२२)।
- कालपूजा
वसु.श्रा./४५३-४५५ गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण णाण-णिव्वाणं। जम्हि दिणे संजादं जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा। ४५३। णंदीसरट्ठदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु। जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा सा। ४५५। = जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन भगवान् का अभिषेक करें। तथा इस प्रकार नन्दीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वों में जो जिन महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए। ४५५। (गुण.श्रा./२२३-२२४)।
- भावपूजा
भ.आ./वि./४७/१५९/२२ भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं। = मन से उनके (अर्हन्तादि के) गुणों का चिन्तन करना भावपूजा है। (अ.ग.श्रा./१२/१४)।
वसु.श्रा./४५६-४५८ काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं। जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु। ४५६। पंचणमोक्कारयएहिं अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिंदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि। ४५७। ...जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिदिट्ठं। ४५८। = परम भक्ति के साथ जिनेन्द्र भगवान के अनन्त चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वन्दना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। ४५६। अथवा पंच णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे। अथवा जिनेन्द्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान को भाव-पूजन जानना चाहिए। ४५७। और... जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, वह भी भावपूजा है। ४५८।
- नामपूजा
- निश्चय पूजा का लक्षण
स.श./मू./३१ यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयो-पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः। ३१। = जो परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भाव की व्यवस्था है।
प.प्र./मू./१/१२३ मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। बीहि वि समरसि-हूबाहं पुज्ज चडावउँ कस्स। = विकल्परूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही को समरस होने पर किसकी अब मैं पूजा करूँ। अर्थात् निश्चयनयकर अब किसी को पूजना सामग्री चढ़ाना नहीं रहा। १२३।
देखें - परमेष्ठी - पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है।
- पूजा के पर्यायवाची नाम
राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए जिन पूजा प्रधान धर्म है, यद्यपि इसमें पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है, पर तहाँ अपने भाव ही प्रधान हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिक के भेद से वह अनेक प्रकार की है और जल चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से की जाती है। अभिषेक व गान नृत्य आदि के साथ की गयी पूजा प्रचुर फलप्रदायी होती है। सचित्त व अचित्त द्रव्य से पूजा, पंचामृत व साधारण जल से अभिषेक, चावलों की स्थापना करने व न करने आदि सम्बन्धी अनेकों मतभेद इस विषय में दृष्टिगत हैं, जिनका समन्वय करना ही योग्य है।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम।
- पूजा के भेद -
- इज्यादि ५ भेद;
- नाम स्थापनादि ६।
- इज्यादि पाँच भेदों के लक्षण।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण।
- निश्चय पूजा के लक्षण।
- पूजा के पर्यायवाची नाम।
- पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।
- * सावद्य होते हुए भी पूजा करनी चाहिए।- देखें - धर्म / ५ / २ ।
- * सम्यग्दृष्टि पूजा क्यों करें?- देखें - विनय / ३ ।
- * प्रोषधोपवास के दिन पूजा करे या न करे- देखें - प्रोषध / ४ ।
- * पूजा की कथंचित् इष्टता-अनिष्टता।- देखें - धर्म / ४ -६।
- नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश।
- पूजा में अन्तरंग भावों की प्रधानता।
- जिन पूजा का फल निर्जरा व मोक्ष।
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है।
- * जिन पूजा सम्यग्दर्शन का कारण है- देखें - सम्यग्दर्शन / III / ५ ।
- पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
- एक जिन या जिनालय की वन्दना से सबकी वन्दना हो जाती है।
- एक की वन्दना से सबकी वन्दना कैसे हो जाती है?
- देव व शास्त्र की पूजा में समानता।
- साधु व प्रतिमा भी पूज्य हैं।
- साधु की पूजा से पाप कैसे नाश होता है।
- सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी पूज्य नहीं- देखें - विनय / ४ ।
- एक जिन या जिनालय की वन्दना से सबकी वन्दना हो जाती है।
- देव तो भावों में है मूर्ति में नहीं।
- फिर मूर्ति को क्यों पूजते हैं।
- पूजा योग्य प्रतिमा- देखें - चैत्य चैत्यालय / १ ।
- एक प्रतिमा में सर्व का संकल्प।
- पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर फण लगाने का विधि-निषेध।
- बाहुबलि की प्रतिमा सम्बन्धी शंका समाधान।
- क्षेत्रपाल आदि की पूजा का निषेध- देखें - मूढता।
- पूजा योग्य द्रव्य विचार
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेक का प्रयोजन व फल।
- पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि।
- सचित्त द्रव्यों आदि से पूजा का निर्देश।
- चैत्यालय में पुष्प वाटिका लगाने का विधान- देखें - चैत्य चैत्यालय / २ ।
- सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजा का समन्वय।
- निर्माल्य द्रव्य के ग्रहण का निषेध।
- अष्ट द्रव्य से पूजा करने का विधान।
- पूजा विधि
- पूजा के पाँच अंग होते हैं।
- पूजा दिन में तीन बार करनी चाहिए।
- एक दिन में अधिक बार भी वन्दना करे तो निषेध नहीं- देखें - वन्दना।
- रात्रि को पूजा करने का निषेध।
- चावलों में स्थापना करने का निषेध।
- स्थापना के विधि निषेध का समन्वय।
- पूजा के साथ अभिषेक व नृत्य गानादि का विधान।
- द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य है।
- पूजा विधान में विशेष प्रकार का क्रियाकाण्ड।
- पूजा विधान में प्रयोग किये जानेवाले कुछ मन्त्र- देखें - मन्त्र।
- पूजा में भगवान को कर्ता-हर्ता बनाना- देखें - भक्ति / १ ।
- पंच कल्याणक- देखें - कल्याणक।
- देव वन्दना आदि विधि- देखें - वन्दना।
- स्तव विधि- देखें - भक्ति / ३ ।
- पूजा में कायोत्सर्ग आदि की विधि- देखें - वन्दना।
- पूजा से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए।
- पूजा के प्रकरण में स्नान विधि- देखें - स्नान।
- पूजा के पाँच अंग होते हैं।
- भेद व लक्षण
- पूजा के पर्यायवाची नाम
म. पु./६७/१९३ यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः। १९३। = याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। १९३।
- पूजा के भेद
- इज्या आदि की अपेक्षा
म.पु./३८/२६ प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च। २६। = पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक। (ध.८/३,४२/९२/४) (इसके अतिरिक्त एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है, जिसे इन्द्र किया करता है तथा और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे इन्हीं भेदों में अन्तर्भूत हैं। (म.पु./३८/३२-३३); (चा.सा./४३/१); (सा.ध./१/१८; २/२५-२९)।
- निक्षेपों की अपेक्षा
वसु. श्रा./३८१ णाम-ट्ठवणा-दव्वे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं। ३८१। = नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेन्द्रदेव ने कही है। ३८१। (गुण.श्रा./२१२)।
- द्रव्य व भाव की अपेक्षा
भ.आ./वि./४७/१५९/२० पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति। = पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद हैं।
- इज्या आदि की अपेक्षा
- इज्या आदि पाँच भेदों के लक्षण
म.पु./३८/२७-३३ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानार्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका। २७। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्। २८। या च पूजाः मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः। २९। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि। ३०। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राड्भिर्यः प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः। ३१। आष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूढ एव सः। महानैन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः। ३२। बलिस्नपनमित्यन्यः त्रिसन्ध्यासेवया समम्। उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम्। ३३। = प्रतिदिन अपने घर से गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेन्द्र देव की पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है। २७। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हन्त देव की प्रतिमा और मन्दिर का निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान भी देना सदार्चन कहलाता है। २८। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है, उसे भी नित्यमह समझना चाहिए। २९। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है। ३०। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के सर्व जीवों की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं, वह कल्पद्रुम नाम का यज्ञ कहलाता है। ३१। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इन्द्र किया करता है। (चा.सा./४३/२); (सा.ध./२/२५-२९)। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीन सन्ध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजा के प्रकार हैं वे उन्हीं भेदों में अन्तर्भूत हैं। ३२-३३।
- नाम, स्थापनादि पूजाओं के लक्षण
- नामपूजा
वसु.श्रा./३८२ उच्चारिऊण णामं अरुहाईणंविसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं खिविज्जंति वण्णिया णामपूया सा। ३८२। = अरहन्तादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं वह नाम पूजा जानना चाहिए। ३८२। (गुण.श्रा./२१३)।
- स्थापना पूजा
वसु.श्रा./३८३-३८४ सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा। ३८३। अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए। संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असब्भावा। ३८४। = जिन भगवान् ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना यह दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में अरहन्तादि के गुणों का जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव स्थापना पूजा है। और अक्षत्, वराटक (कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भाव पूजा जानना चाहिए। ३८३-३८४। (गुण.श्रा./२१४-२१५)।
- द्रव्यपूजा
भ.आ./वि./४७/१५९/२१ गन्धपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाद्युद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणसंस्तवनं च। = अर्हदादिकों के उद्देश्य से गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना, यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खड़े होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया करना, वचनों से अर्हदादिक के गुणों को स्तवन करना, यह भी द्रव्य-पूजा है। (अ.ग.श्रा./१२/१२)।
वसु. श्रा./४४८-४५१ दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा। दव्वेण गंध-सलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा। ४४८। तिविहा दव्वे पूजा सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्गं। ४४९। तेसिं च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा। जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा। ४५०। अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं। णाऊण दव्वपूजा कायव्वा सुत्तमग्गेण। ४५१। = जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्य से अर्थात् जल गन्धादि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूह से करना चाहिए। ४४८। (अ.ग.श्रा./१२१३) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात् जिन तीथकर आदि के शरीर की और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा है और जो दोनों की पूजा की जाती है, वह मिश्रपूजा जानना चाहिए। ४४९-४५०। अथवा आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्य निक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए। ४५१। (गुण.श्रा./२१९-२२१)।
- क्षेत्रपूजा
वसु. श्रा./४५२ जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा। = जिन भगवान् की जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है। ४५२। (गुण.श्रा./२२२)।
- कालपूजा
वसु.श्रा./४५३-४५५ गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण णाण-णिव्वाणं। जम्हि दिणे संजादं जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा। ४५३। णंदीसरट्ठदिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वेसु। जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा सा। ४५५। = जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए हैं, उस दिन भगवान् का अभिषेक करें। तथा इस प्रकार नन्दीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वों में जो जिन महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए। ४५५। (गुण.श्रा./२२३-२२४)।
- भावपूजा
भ.आ./वि./४७/१५९/२२ भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं। = मन से उनके (अर्हन्तादि के) गुणों का चिन्तन करना भावपूजा है। (अ.ग.श्रा./१२/१४)।
वसु.श्रा./४५६-४५८ काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं। जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु। ४५६। पंचणमोक्कारयएहिं अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिंदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि। ४५७। ...जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिदिट्ठं। ४५८। = परम भक्ति के साथ जिनेन्द्र भगवान के अनन्त चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वन्दना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। ४५६। अथवा पंच णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे। अथवा जिनेन्द्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान को भाव-पूजन जानना चाहिए। ४५७। और... जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, वह भी भावपूजा है। ४५८।
- नामपूजा
- निश्चय पूजा का लक्षण
स.श./मू./३१ यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयो-पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः। ३१। = जो परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भाव की व्यवस्था है।
प.प्र./मू./१/१२३ मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स। बीहि वि समरसि-हूबाहं पुज्ज चडावउँ कस्स। = विकल्परूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही को समरस होने पर किसकी अब मैं पूजा करूँ। अर्थात् निश्चयनयकर अब किसी को पूजना सामग्री चढ़ाना नहीं रहा। १२३।
देखें - परमेष्ठी - पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही स्थित हैं, अतः वही मुझे शरण है।
- पूजा के पर्यायवाची नाम