पूज्यपाद
From जैनकोष
१. आप कर्णाटक देशस्थ ‘कोले’ नामक ग्राम के माधव भट्ट नामक एक ब्राह्माण के पुत्र थे। माता का नाम श्रीदेवी था। सर्प के मुँह में फँसे हुए मेढ़क को देखकर आपको वैराग्य आया था। आपके सम्बन्ध में अनेक चमत्कारिक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं। अग्रोक्त शिलालेख के अनुसार आप पाँव में गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे। श्रवणबेलगोल के निम्न शिलालेख नं. १०८ (श. सं. ११३५) से पता चलता है कि आपके चरण प्रक्षालन के जल के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता था। जैसे - श्रीपूज्यपादमुनिर-प्रतिमौषधर्धिर्जीयाद्विदेहदर्शनपूतगात्रः। यत्पादधौतजलसंस्पर्श-प्रभावात्कालायसं किल तदा कनकीचकार। = घोर तपश्चरण आदि के द्वारा अपके नेत्रों की ज्योति नष्ट हो गयी थी। शान्त्यष्टक के पाठ से वह पुनः प्रगट हो गई। आपका असली नाम देवनन्दि है। नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार आप यशोनन्दि के शिष्य हैं ( देखें - इतिहास / ७ / ३ ) बुद्धि की प्रखरता से आप जिनेन्द्रबुद्धि और देवों के द्वारा पूजितचरण होने से पूज्यपाद कहलाते थे। आपके द्वारा रचित निम्न कृतियाँ हैं -
- जैनेन्द्र व्याकरण,
- मुग्धबोध व्याकरण,
- शब्दावतार,
- छन्दशास्त्र,
- वैद्यसार (वैद्यकशास्त्र),
- सर्वार्थसिद्धि,
- इष्टोपदेश,
- समाधिशतक,
- सारसंग्रह,
- जन्माभिषेक,
- दशभक्ति,
- शान्त्यष्टक। समय-पट्टावली में श. सं. २५२-३०८ (वि. ३८७-४४३) ( देखें - इतिहास / ७ / २ ); कीथ = वि. ७३५; प्रेमीजी = वि.श. ६; आई. एस पवते = वि. ५२७; मुख्तार साहब = गंगराज दुर्विनीत (वि. ५००-५३५) के गुरु तथा इनके शिष्य वज्रनन्दिनन्दि ने वि. ५२६ में द्रविड़संघ की नींव डाली इसलिए वि.श. ६; युधिष्ठिर मीमांसा - जैनेन्द्र व्याकरण में लिखित महेन्द्र-राज वि.४७०-५२२ के गुप्त वंशीय चन्द्रगुप्त द्वि.थे इसलिए वि. श. ५ का अन्त और ६ का पूर्व। पं. कैलाशचन्द इससे सहमत हैं (जै./२/२९२-२९४) डा. नेमिचन्द ने इन्हें वि.श. ६ में स्थापित किया है। (ती./२/२२५)।