प्रतिक्रमण
From जैनकोष
व्यक्ति को अपनी जीवनयात्रा में कषाय वश पद-पद पर अन्तरंग व बाह्य दोष लगा करते हैं, जिनका शोधन एक श्रेयोमार्गी के लिए आवश्यक है । भूतकाल में जो दोष लगे हैंउनके शोधनार्थ, प्रायश्चित्त पश्चात्ताप व गुरुके समक्ष अपनी निन्दा-गर्हा करना प्रतिक्रमण कहलाता है । दिन, रात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर आदि में लगे दोषों को दूर करने की अपेक्षा वह कई प्रकार हैं ।
- भेद व लक्षण
- प्रतिक्रमण सामान्य का लक्षण
- निरुक्त्यर्थ
स.सि./९/२२/४४०/६मिथ्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम् = ‘मेरा दोष मिथ्या हो’ गुरु से ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है । (रा.वा./९/२२/३/६२१/१८), (त.सा./७/२३९)
गो.जी./जी.प्र./३६७/७९०/२ प्रतिक्रम्यते प्रमादकृतदैवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणं । = प्रमाद के द्वारा किये दोषों का जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है, उसको प्रतिक्रमण कहते हैं ।
- दोष निवृत्ति
रा.वा./६/२४/११/५३०/१३ अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणम् । = कृत दोषों की निवृति प्रतिक्रमण है । (स.सा./ता.वृ./३०६/३८८/९) (भा.पा./टी./७७/२२१/१४) ।
ध. ८/३,४१/८४/६ पंचमहव्वएसु चउरासीदिलक्खणगुणगणकललिएसु समुप्पण्णकलंकपक्खालणं पिडक्कमणं णाम । = चौरासी लाख गुणों के समूह से संयुक्त पाँच महाव्रतों में उत्पन्न हुए मल को धोने का नाम प्रतिक्रमण है ।
भ.आ./वि./४२१/६१५/१२ अचेलतादिकल्पस्थितस्य यद्यतिचारो भवेत् प्रतिक्रमणं कर्तव्यमित्येषोऽष्टमः स्थितिकल्पः । = अचेलतादि कल्प में रहते हुए जो मुनि को अतिचार लगते हैं उनके निवारणार्थ प्रतिक्रमण करना अष्टम स्थितिकल्प है ।
- मिथ्या मे दुष्कृत
मू.आ./२६ दव्वे खेत्ते काले भावे य किदावराहसोहणयं । णिंदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिकमणं ।२६. = द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में किया गया जो व्रत में दोष उसका शोधना, आचार्यादिके समीप आलोचनापूर्वक अपने दोषों को प्रकट करना, वह मुनिराज का प्रतिक्रमण गुण होता है ।२६।
नि.सा./मू.१५३ वयणमयं पडिकमणं ... जाण सज्झाउं ।१५३। = वचनमय प्रतिक्रमण ... यह स्वाध्याय जान ।
ध./१३/५,४,२६/६०/८ गुरणमालोचणाएविणा ससंवेणणिव्वेयस्स पुणो ण करेमि त्ति जमवराहादो णियत्तणं पडिक्कमणं णाम पायच्छित्तं । = गुरुओं के सामने आलोचना किये बिना संवेग और निर्वेद से युक्त साधु का फिर कभी ऐसा न करूँगा यह कहकर अपने अपराध से निवृत्त होना प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त है । (अन.ध./७/४७) (भा.पा./७८/२२३/५) ।
भ.आ./वि/६/३२/१९ स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्तिः प्रतिक्रमणं । = स्वतः के द्वारा किये हुए अशुभ योगसे परावर्त होना अर्थात् ‘मेरे अपराध मिथ्या होवें’ ऐसा कहकर पश्चात्ताप करना प्रतिक्रमण है ।
- निरुक्त्यर्थ
- निश्चय प्रतिक्रमण का लक्षण
- शुद्ध नय की अपेक्षा
सा.सा./मू./३८३ कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । ततो णियत्तए अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।३८३। = पूर्वकृत जो अनेक प्रकार के विस्तार वाला शुभ व अशुभ कर्म है, उससे जो आत्मा अपने को दूर रखता है वह आत्मा प्रतिक्रमण है ।३८३।
नि.सा./मू./८३-८४ मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववरणणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि जस्स दु होदित्ति पडिकमणं ।८३। आराहणाइ वट्टइ मोचूण विराहणं विसेसेण । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।८४। = वचन रचना को छोड़कर, रागादि भावों का निवारण करके, जो आत्मा को ध्याता है, उसे प्रतिक्रमण होता है ।८३। जो (जीव) विराधना को विशेषतः छोड़कर आराधना में वर्तता है, वह (जीव) प्रतिक्रमण कहलाता है, कारण कि वह प्रतिक्रमणमय है । ८४। (इसी प्रकार अनाचार को छोड़कर आचार में, उन्मार्ग का त्याग करके जिनमार्ग में, शल्यभाव को छोड़कर निःशल्य भाव से, अगुप्ति भाव को छोड़कर त्रिगुप्ति गुप्त से, आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म अथवा शुक्ल ध्यान को, मिथ्यादर्शन आदि को छोड़कर सम्यक् दर्शन को भाता है वह जीव प्रतिक्रमण है । (नि.सा./मू./८५-९१) ।
भ.आ./वि./१०/४९/१० कृतातिचारस्य यतेस्तदतिचारपराङ्मुखतो योगत्रयेण हा दुष्टं कृतं चिन्तितमनुमन्तं चेति परिणामः प्रतिक्रमणम् । = जब मुनि को चारित्र पालते समय दोषलगते हैं तबमन वचन योग से मैंने हा !दुष्ट कार्य किया, कराया व करने वालों का अनुमोदन किया,यह अयोग्य किया, ऐसे आत्मा के परिणाम को प्रतिक्रमण कहते हैं ।
- निश्चय नय की अपेक्षा
नि.सा./मू./८२ उत्तमअट्ठ आदा तम्हि हिदा हणदि मुणिवराकम्मं । तम्हा दु झाणमेव हि उत्तम अट्ठस्स पडिकमणं ।९२। = उत्तमार्थ (अर्थात् उत्तम पदार्थ सच्चिदानन्दरूप कारण समयसारस्वरूप) आत्मा में स्थित मुनिवर कर्म का घात करते हैं, इसलिए ध्यान ही वास्तव में उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है ।८२।(न.च.वृ./३४६) ।
ति.प./९/४९ पडिकमणं पडिसरणं पडिहरणं धारणा णियत्ती य । णिंदणगरुहणसोही लब्भंति णियादभावणए ।४९। = निजात्मा भावना से प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन, गर्हण और शुद्धि को प्राप्त होते हैं ।४९।
यो.सा.अ./५/५० कृतानां कर्मणां पूर्वं सर्वेषां पाकमीयुषां । आत्मीयत्वपरित्यागः प्रतिक्रमणमीर्यते ।५०। = पहिले किये हुए कर्मों के प्रदत्त फलों को अपना न मानना प्रतिक्रमण कहा जाता है । ५०।
प्र.सा./ता.वृ./२०७/२८१/१४ निजशुद्धात्मपरिणतिलक्षणा या तु क्रिया सा निश्चयेन बृहत्प्रतिक्रमणा भण्यते । = निज शुद्धात्म परिणति है लक्षण जिसका ऐसी जो क्रिया है, वह निश्चय नय से बृहत्प्रतिक्रमण कही जाती है ।
- शुद्ध नय की अपेक्षा
- प्रतिक्रमण के भेद
- दैवसिक आदि की अपेक्षा
मू.आ./१२०,६१३ पढमं सव्वदिचारं विदियं तिविहं हवैं पडिक्कमणं । पाणस्स परिच्चयणं जावज्जीवुत्तमट्ठं च ।१२०। पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं । पक्खिय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमट्ठं च ।६१३। = पहला सर्वातिचार प्रतिक्रमण है अर्थात् दीक्षा ग्रहण से लेकर सब तपश्चरण के कालतक जो दोष लगे हों उनकी शुद्धि करना, दूसरा त्रिविध प्रतिक्रमण है वह जल के बिनातीन प्रकार के आहार का त्याग करने में जो अतिचार लगे थे उनका शोधन करना और तीसरा उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है उसमें जीवन पर्यंत जल पीने का त्याग किया था, उसके दोषों की शुद्धि करना है ।१२०। अतिचारों से निवृत्ति होना वह प्रतिक्रमण है। वह दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिकऔर उत्तमार्थ प्रतिक्रमण ऐसे सात प्रकार हैं /६१३/(क.पा.१); (६,१/८८/११३/६) (गो.जो./जी.प्र./३६७/७१०/३) ।
- द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा
भ.आ./वि./११६/२७५/१४ प्रतिक्रमणं प्रतिनिवृत्तिः षोढा भिद्यते नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन । .... केषांचिद्वयाख्यानं । चतुर्विधमित्यपरे । = अशुभ से निवृत्त होना प्रतिक्रमण है, उसके छह भेद हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव प्रतिक्रमण । ऐसे कितने आचार्यों का मत है । कोई आचार्य प्रतिक्रमण के चार भेद कहते हैं ।
- दैवसिक आदि की अपेक्षा
- नाम स्थापनादि प्रतिक्रमण के लक्षण
भ.आ./वि./११६/२७५/१४ अयोग्यनाम्नामनुच्चारणं नामप्रतिक्रमणं । ... आप्ताभासप्रतिमायां पुरः स्थिताया यदभिमुखतया कृताञ्जलिपुटता, शिरोवनति ... न कर्तव्यम् । एवं सा स्थापना परिहुता भवति । त्रस-स्थावरस्थापनानामविनाशनं अमर्द्दनं अताडनं वा परिहारप्रतिक्रमणं । ... उद्गमोत्पादनैषणादोषदुष्टनां वसतीनं उपकरणानां, भिक्षाणां च परिहरणं, अयोग्यानां चाहारादीनां, गृद्धदर्पस्य च कारणानां संक्लेशहेतूनां वा निरसनं द्रव्यप्रतिक्रमणं । उदक-कर्द्दमत्रसस्थावरनिचितेषु क्षेत्रेषु गमनादिवर्जनं क्षेत्रप्रतिक्रमणं । यस्मिन्वा क्षेत्रे वसतो रत्नत्रयहानिर्भवति तस्य वा परिहारः । ... रात्रिसंध्यात्रयस्वाध्यायावश्यककालेषु गमनागमनादिव्यापाराकारणात् कालप्रतिक्रमणं । ... आर्तरौद्रमित्यादयोऽशुभपरिणामाः, पुण्यास्रवभूताश्च शुभपरिणामा; इह भावशब्देन, गृह्यन्ते, तेभ्यो निवृत्तिर्भावप्रतिक्रमणं इति । = अयोग्य नामों का उच्चारण न करना यह नाम प्रतिक्रमण है । ... आप्ताभास की प्रतिमा के आगे खड़े होकर हाथ जोड़ना, मस्तक नवाना, द्रव्य से पूजा करना, इस प्रकार के स्थापना का त्याग करना, अथवा त्रस, वा स्थावर जीवों की स्थापनाओं का नाश करना, मर्दन तथा ताड़न आदि का त्याग करना स्थापना प्रतिक्रमण है ।... उद्गमादि दोष युक्त वसतिका, उपकरण व आहार का त्याग करना, अयोग्य अभिलाषा, उन्मत्तता तथा संक्लेश परिणाम को बढ़ाने वाले आहारादिका त्याग करना, यह सब द्रव्य प्रतिक्रमण है । पानी, कीचड़, त्रसजीव, स्थावर जीवों से व्याप्त प्रदेश, तथा रत्नत्रय की हानि जहाँ हो ऐसे प्रदेश का त्याग करना क्षेत्र प्रतिक्रमण है । .... रात्रि, तीनों सन्ध्याओं में, स्वाध्यायकाल, आवश्यक क्रिया के कालों में आने-जाने का त्याग करना यह काल प्रतिक्रमण है । ... आर्त-रौद्र इत्यादिक अशुभ परिणाम व पुण्यास्रव के कारणभूत शुभ परिणाम का त्याग करना भाव प्रतिक्रमण है ।
भ.आ./वि./५०९/७२८/१४ हा दुष्कृतमिति वा मनःप्रतिक्रमणं । सूत्रोच्चारणं वाक्य-प्रतिक्रमणं । कायेन तदनाचरणं कायप्रतिक्रमणं । = किये हुए अतिचारों का मन से त्याग करना यह मनःप्रतिक्रमण है । हाय ! मैने पाप कार्य किया है ऐसा मन से विचार करनायह मनःप्रतिक्रमण है । सूत्रों का उच्चारण करना यह वाक्य प्रतिक्रमण है । शरीर के द्वारा दुष्कृत्यों का आचरण न करना यह कायकृत प्रतिक्रमण है ।
- * आलोचना व प्रतिक्रमण रूप उभय प्रायश्चित्त - देखें - प्रायश्चित्त / ३ / १
- अप्रतिक्रमण का लक्षण
स.सा./ता.वृ./३०७/३८९/१७ अप्रतिक्रमणं द्विविधं भवति ज्ञानिजनाश्रितं अज्ञानिजनाश्रितं चेति । अज्ञानिजनाश्रितं यदप्रतिक्रमणं तद्विषयकषायपरिणतिरूपं भवति । ज्ञानिजीवाश्रितमप्रतिक्रमणं तु शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानलक्षणं त्रिगुप्तिरूपं । = अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है - ज्ञानीजनों के आश्रित और अज्ञानी जनों के आश्रित । अज्ञानी जनों के आश्रित जो अप्रतिक्रमण है वह विषय कषाय की परिणति रूप है अर्थात् हेयोपादेय के विवेकशून्य सर्वथा अत्यागरूप निरर्गल प्रवृत्ति है । परन्तु ज्ञानी जीवों के आश्रित जो अप्रतिक्रमण है वह शुद्धात्मा के सम्यग्श्रद्धान, ज्ञान व आचरण लक्षण वाले अभेद रत्नत्रयरूप या त्रिगुप्तिरूप है ।
स.सा./ता.वृ./२८३/३६३/८ पूर्वानुभूतविषयानुभवरागादिस्मरणरूपमप्रतिक्रमणं द्विविधं, .... द्रव्यभावरूपेण ... । = पूर्वानुभूत विषयों का अनुभव व रागादिरूप अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है - द्रव्य व भाव अप्रतिक्रमण ।
स.सा./पं. जयचन्द/२८४-२८५ अतीत काल में जो पर द्रव्यों का ग्रहण किया था उनको वर्तमान में अच्छा जानना, उनका संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व भाव का होना सो द्रव्य अप्रतिक्रमण है । उन द्रव्यों के निमित्त से जो रागादि भाव (अतीत काल में) हुए थे, उनको वर्तमान में भले जानना, उनका संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व भाव रहना सो भाव अप्रतिक्रमण है ।
- प्रतिक्रमण सामान्य का लक्षण
- प्रतिक्रमण विधि
- आदि व अन्त तीर्थों में प्रतिक्रमण की नितान्त आवश्यकता
मूं.आ./६२८, ६३० इरियागोयरसुमिणादिसव्वमाचरदु मा व आचरदु । पुरिमचरिमादु सव्वे सव्वं णियमा पडिकमंदि ।६२८। पुरिमचरिमादु जम्हा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य । तो सव्वपडिक्कमणं अंधलघोडय दिट्ठंतो ।६३०। = ऋषभदेव और महावीर प्रभु के शिष्य इन सब ईर्यागोचरी स्वप्नादि से उत्पन्न हुए अतिचारों को प्राप्त हो अथवा मत प्राप्त हो तो भी प्रतिक्रमण के सब दंडकों को उच्चारण करते हैं ।६२८। आदि व अन्त के तीर्थंकर के शिष्य चलायमान चित्त वाले होते हैं, मूढ बुद्धि होते हैं इसलिए वे सब प्रतिक्रमण दण्डक उच्चारण करते हैं । इसमें अन्धे घोडे का दृष्टान्त है कि सब औषधियों के करने से वह सूझता है ।६३०। (मू.आ./६२६) (म.आ./वि./४२१/६९६/५) .
- शिष्यों का प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक और गुरुका आलोचना के बिना ही होता है
मू.आ./६१८ काऊण य किदियम्मं पडिलेहिय अंजलीकरणसुद्धो । आलोचिज्ज सुविहिदो गारव माणं च मोत्तूण ।६१८। = विनयकर्म करके, शरीर, आसन को पीछी व नेत्र से शुद्ध करके, अंजलि क्रिया में शुद्ध हुआ निर्मल प्रवृत्ति वाला साधु ऋद्धि आदि गौरव और जाति आदि के मान को छोड़कर गुरु से अपने अपराधों का निवदेन करें ।६१८।
रा.वा./९/२२/४/६२१/२२ इदमयुक्तं वर्तते । ‘किमत्रायुक्तम् । अनालोचयतः न किंचिदपि प्रायश्चित्तम्’ इत्युक्तम्, पुनरुपदिष्टम्—‘प्रतिक्रमणंमात्रमेव शुद्धिकरम्’इति एतदयुक्तम् । अथ तत्राप्यालोचनापूर्वकत्वमभ्युपगम्यते, तदुभयोपदेशो व्यर्थः, नैष दोषः, सर्व प्रति क्रमणमालोचनापूर्वकमेव, किंतु पूर्वं गुरुणाभ्यनुज्ञातं शिष्येणैव कर्त्तव्यम्, इदं पुनर्गुरुणैवानुष्ठेयम् । = शंका - पहिले कहा है कि आलोचना किये बिना कुछ भी प्रायश्चित नहीं होता और अब कह रहे हैं कि प्रतिक्रमण मात्र ही शुद्धिकारी है । इसलिए ऐसा कहना अयुक्त है । यहाँ भी आलोचना पूर्वक ही जाना जाता है इसलिए तदुभय प्रायश्चित्त का निर्देश करना व्यर्थ है । उत्तर- यह कोई दोष नहीं है - वास्तव में सभी प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक ही होते हैं । किन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि तदुभय प्रायश्चित्त गुरु की आज्ञा से शिष्य करता है । जहाँ केवल प्रतिक्रमण से दोषशुद्धि होती है वहाँ वह स्वयं गुरु के द्वारा ही किया जाता है; क्योंकि गुरु स्वयं किसी अन्य से आलोचना नहीं करता ।
- अल्प दोष में गुरु साक्षी आवश्यक नहीं
ध.१३/५,४,२६/६०/९ एदं (पडिक्कमणं पायच्छित्तं) कत्थ होदि । अप्पावराहे गुरुहि विणा वट्ठ माणम्हि होदि = जब अपराध छोटा-सा हो और गुरु समीप न हों, तब यह (प्रतिक्रमण नामका) प्रायश्चित है ।
चा.सा./१४१/४ अस्थितानां योगानां धर्मकथादिव्याक्षेपहेतुसंनिधानेन विस्मरणे सत्यालोचनं पुनरनुष्ठायकस्य संवेगनिर्वेदपदस्य गुरुविरहित स्यास्याल्पापराधस्य पुनर्न करोमि मिथ्या मे दुष्कृतमित्येवमादिभिर्दोषान्निवर्त्तनं प्रतिक्रमणं ।= धर्म कथादि में कोई विघ्न के कारण उपस्थित हो जाने पर यदि कोई मुनि अपने स्थिर योगोंको भूल जाय तो पहिले आलोचना करते हैं और फिर वे यदि संवेग और वैराग्य में तत्पर रहें, समीप में गुरु न हों तथा छोटा-सा अपराध लगा हो तो ‘मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा, यह मेरा पाप मिथ्या हो’ इस प्रकार दोषों से अलग रहना प्रतिक्रमण कहलाता है ।
- प्रतिक्रमण करने का विषय व विधि
मू.आ./६१६-6१७ पडिकमिदव्बं दव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं तिविहं । खेत्तं च गिहादीयं कालो दिवसादिकालम्हि ।११६। मिच्छत्तपडिक्कमणं वह चेव असंजमे पडिक्कमणं । कसाएसु पडिक्कमणं लोगेसु य अप्पसत्थेसु ।६१७। = सचित्त, अचित्त, मिश्ररूप जो त्यागने योग्य द्रव्य हैं वह प्रतिक्रमितव्य हैं, घर आदि क्षेत्र हैं, दिवस मुहूर्त आदि काल हैं । जिस द्रव्य आदि से पापास्रव हो वह त्यागने योग्य है । ६१६। मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण, उसी तरह असंयमका प्रतिक्रमण, क्रोधादि कषायों का प्रतिक्रमण, और अशुभ योगों का प्रतिक्रमण करना चाहिए ।६१७।
देखें - प्रतिक्रमण / २ / २ (गुरु समक्ष विनय सहित, शरीर व आसन को पीछी व नेत्र से शुद्ध करके करना चाहिए ) ।
देखें - कृति कर्म / ४ / ३ (दैवसिकादि प्रतिक्रमण में सिद्ध भक्ति आदि पाठों का उच्चारण करना चाहिए) ।
मू.आ./६६३-६६५ भत्ते पाणे गामंतरे य चदुमासिवरिसचरिमेसु । णाऊण ठंति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए ।६६३। काओसग्गम्हिठिदो चिंतिदु इरियावधस्स अतिचारं । तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च चिंतेज्जो ।६६४। तह दिवसियरादियपक्खियचदुमासिवरिसचरिमेसु । तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च झायेज्जो ।६६५। = भक्त पान ग्रामान्तर, चातुर्मासिक, वार्षिक, उत्तमार्थ जानकर धीर पुरुष अतिशय कर दुख के क्षय निमित्त कायोत्सर्ग में तिष्ठते हैं ।६६३। कायोत्सर्ग में निष्ठा, ईर्यापथ के अतिचार के नाश को चिंतवन करता मुनि उन सब नियमों को समाप्त कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान चिन्तवन करो ।६६४। इसी प्रकार दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक, उत्तमार्थ - इन सब नियमों को पूर्ण कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान ध्यावै ।६६५।
- प्रतिक्रमण योग्य काल
देखें - प्रतिक्रमण / १ / ३ (दिन, रात्रि, पक्ष, वर्ष, व आयु के अन्त में दैवसिकादि प्रतिक्रमण किये जाते हैं ।)
अन. ध./१/४४ योगप्रतिक्रमविधिः प्रागुक्तो व्यावहारिकः । कालक्रमनियमोऽत्र न स्वाध्यायादिवद्यतः ।४४। = रात्रि योग तथा प्रतिक्रमण का जो पहले विधानकिया गया है, वह व्यावहारिक है क्योंकि इनके विषय में काल के क्रम का अर्थात् समयानुपूर्वीका या काल और क्रम का नियम नहीं है । जिस प्रकार स्वाध्यायादि (स्वाध्याय, देव-वन्दन और भक्त-प्रत्याख्यान) के विषय में काल और क्रम नियमित माने गये हैं उस प्रकार रात्रियोग और प्रतिक्रमण के विषय में नहीं ।४४।
- प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण - देखें - व्युत्सर्ग / १ / ६
- प्रतिक्रमण प्रायश्चित किसको कब दिया जाता है,तथा प्रतिक्रमण के अतिचार - देखें - प्रायश्चित्त / ४ / २ ।
- आदि व अन्त तीर्थों में प्रतिक्रमण की नितान्त आवश्यकता
- प्रतिक्रमण निर्देश
- प्रतिक्रमण व सामायिक में अन्तर
भ.आ./वि./११६/२७६/८ सामायिकस्य प्रतिक्रमणस्य च को भेदः । सावद्ययोगनिवृत्तिः सामायिकं । प्रतिक्रमणमपि अशुभमनोवाक्कायनिवृत्तिरेव तत्कथं षडावश्यकव्यवस्था । अत्रोच्यते- सव्वं सावज्जजोगं पच्चाक्खामाति वचनाद्धिंसादिभेदमनुपादाय सामान्येन सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिः सामायिकं । हिंसादिभेदेन सावद्ययोगविकल्पं कृत्वा ततो निवृत्तिः प्रतिक्रमणं । ... इंद त्वन्याय्यं प्रतिविधानं . योगशब्देन वीर्यपरिणाम उच्यते । स च ... क्षायोपशमिको भावस्ततो निवृत्तिर- शुभकर्मादाननिमित्तयोगरूपेण अपरिणतिरात्मनः सामायिकं । मिथ्यात्वासंयमकषायाश्च दर्शनचारित्रमोहोदयजा औदयिका ।... तेम्यो विरतिर्व्यावृत्तिः प्रतिक्रमणं । = प्रश्न - सामायिक और प्रतिक्रमण में क्या भेद हैं ? सावद्य मन वचन काय की प्रवृत्तियों से विरक्त होना यह सामायिकका लक्षण है और अशुभ मनोवाक्कायकी निवृत्ति होना यह प्रतिक्रमण है । अर्थात् प्रतिक्रमण और सामायिक इनमें कुछ भी भेद नहीं है । इसलिए छः आवश्यक क्रियाओं की व्यवस्था कैसे होगी ? उत्तर - ‘सर्वसावद्य योगों का मैं त्याग करता हूँ’ ऐसा वचन अर्थात् प्रतिज्ञा सामायिक में की जाती है । हिंसादिकों के भेद पृथक् न ग्रहण कर सामान्य से सर्व पापों का त्याग करना सामायिक है और हिंसादि भेद से सावद्य योग के विकल्प करके उससे विरक्त होना प्रतिक्रमण है । ... इस रीति से ऊपर के प्रश्न का कोई विद्वान उत्तर देते हैं परन्तु यह उनका उत्तर अयोग्य है । योग शब्द से वीर्य परिणाम ऐसा अर्थ होता है । वह वीर्य परिणाम वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, इसलिए वह क्षायोपशमिक भाव है । ऐसे योग से निवृत्त होना यह सामायिक है । मिथ्यात्व, असंयम और कषाय ये दर्शन व चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में उत्पन्न होते हैं ।... ऐसे परिणामों से विरक्ति होना यह प्रतिक्रमण कहा गया है ।
- प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान में अन्तर
क.पा.१/१,१/११५/१ पच्चक्खाणपडिक्कमणाणं को भेओ । उच्चदे, संगगट्ठियदोसाणं दव्व-खेत्त-काल-भावविसयाणं परिच्चाओ । पच्चक्खाणं णाम । पच्चक्खाणादो अपच्छक्खाणं गंतूण पुणोपच्चक्खाणस्सागमणं पडिक्कमणं । = प्रश्न - प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण में क्या भेद है । उत्तर - द्रव्य, क्षेत्र , काल और भाव के निमित्त से अपने शरीर में लगे हुए दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है तथा प्रत्याख्यान से अप्रत्याख्यान को प्राप्त होकर पुनः प्रत्याख्यान को प्राप्त होना प्रतिक्रमण है ।
- प्रतिक्रमण के भेदों का परस्पर में अन्तर्भाव
क.पा.१/१,१/८८/११३/६ सव्वायिचारिय-तिविहाहारचायियपडिक्कमणाणि उत्तमट्ठाणपडिक्कामणम्मि णिवदंति । अट्ठावीसमूलगुणाइचारविंसयसव्वपडिक्कामणाणि इरियावहयपडिक्कमम्मि णिवदंति; अवगयअइचारविसयत्तादो । = सर्वातिचारिक और त्रिविधाहार त्यागिक नाम के प्रतिक्रमण उत्तम स्थान प्रतिक्रमण में अन्तर्भूत होते हैं । अट्ठाईस मूलगुणों के अतिचारविषयक समस्त प्रतिक्रमण ईर्यापथ प्रतिक्रमण में अन्तर्भूत होते हैं, क्योंकि प्रतिक्रमण अवगत अतिचारों को विषय करता है ।
- निश्चय व्यवहार प्रतिक्रमण की मुख्यता गौणता - देखें - चारित्र । / ७
- प्रतिक्रमण व सामायिक में अन्तर