प्रतिभा
From जैनकोष
श्लो.वा./३/१/२०/१२४/६६२/३ उत्तर-प्रतिपत्तिः प्रतिभा कैश्चिदुक्ता सा श्रुतमेव, न प्रमाणान्तरं, शब्दयोजनासद्भावात् । अत्यन्ताभ्यासादाशुप्रतिपत्तिरशब्दजा कूटद्रुमादावकृताभ्यासस्याशुप्रवृत्तिः प्रतिभापरैः प्रोक्ता । सा न श्रुतं, सादृश्यप्रत्यभिज्ञानरूपत्वात्तस्यास्तयोः पूर्वोत्तरयोर्हि दृष्टदृश्यमानयोः कूटद्रुमयोः सादृश्यप्रत्यभिज्ञा झटित्येकतां परामृषन्ती तदेवेत्युपजायते । सा च मतिरेव निश्चितेत्याह । = उत्तर की समीचीन प्रतिपत्ति हो जाना प्रतिभा है । किन्हीं लोगों ने उसको न्यारा प्रमाण माना है । किन्तु हम जैनों के न्यारे प्रमाणस्वरूप नहीं हैं क्योंकि वाचक शब्दों की योजना का सद्भाव है । किन्तु अत्यन्त अभ्यास हो जाने से झटिति, कूट, वृक्ष, जल आदि में उस प्रतिभा के अनुसार प्रवृत्ति हो जाती है । जो यह अनभ्यासी पुरुष की प्रतिभा है, वह तो श्रुत नहीं है । क्योंकि पहिले कहीं देख लिये गये और अब उत्तर काल में देखे जा रहे कूट, वृक्ष आदि के एकपन में झट सादृश्य प्रत्यभिज्ञा उपज जाती है । अतः वह मतिज्ञान ही है ।