प्रद्युम्न
From जैनकोष
ह.पु./सर्ग/श्लोक - अपने पूर्व के सातवें भव में शृगाल था (४६/११५)। छठे भव में ब्राह्मणपुत्र अग्निभूति (४३/१००), पाँचवें भव में सौधर्म स्वर्ग में देव (४६/१३६), चौथे भव में सेठपुत्रपूर्णभद्र (४३/१५८) तीसरे भव में सौधर्म स्वर्ग में देव (४३/१५८), दूसरे भव में मधु (४३/१६०), पूर्व भव में आरणेन्द्र था (४३/४०)। वर्तमान भव में कृष्णपुत्र था (४३/४०)। जन्मते ही पूर्व वैरी असुरने इसको उठाकर पर्वत पर एक शिला के नीचे दबा दिया (४३/४४)।तत्पश्चात् कालसंवर विद्याधर ने इसका पालन किया (४३/४७)।युवा होने पर पोषक माता इन पर मोहित हो गयी (४३/५५) । इस घटना पर पिता कालसंवर को युद्ध में हराकर द्वारका आये तथा जन्ममाता को अनेकों बालक्रीड़ाओं द्वारा प्रसन्न किया (४७/६७) । अन्त में दीक्षा धारण की (६१/३९), तथा गिरनार पर्वत पर से मोक्ष प्राप्त किया (६५/१६-१७) ।