प्रमाद
From जैनकोष
- प्रमाद
- कषाय के अर्थ में
स.सि./७/१३/३५१/२ प्रमादः सकषायत्वं । = प्रमाद कषाय-सहित अवस्था को कहते हैं ।
ध. ७/२, १,७/११/११ चदुसंजलण-णवणोकसायाणं तिव्वोदओ । = चार संज्वलन कषाय और नव नोकषाय, इन तेरह के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है ।
- अनुत्साह के अर्थ में
स.सि./८/१/३७४/८ स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः । = अच्छे कार्यों के करने में आदर भाव का न होना यह प्रमाद है । (रा.वा./८/१/३०/५६४/३०) ।
म.पु./ ६२/३०५ कायवाक्चेतसां वृत्तिर्व्रतानां मलकारिणी । या सा षष्ठगुणस्थाने प्रमादो बन्धवृत्त ये ।३०५। = छठे गुणस्थान में व्रतों में संशय उत्पन्न करने वाली जो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति है उसे प्रमाद कहते हैं, यह बन्ध का कारण है ।
स.सा./आ./३०७/क. १९० कषायभरगौंरवादलसता प्रमादो यतः । = कषाय के भार के भारी होने को आलस्य का होना कहा है, उसे प्रमाद कहते हैं ।
त.सा./५/१० शुद्ध्यष्ट के तथा धर्मे क्षान्त्यादिदशलक्षणे । योऽनुत्साहः स सर्वज्ञैः प्रमादः परिकीर्तितः ।१०। = आठ शुद्धि और दश धर्मों में जो उत्साह न रखना उसे सर्वज्ञदेवने प्रमाद कहा है ।
द्र.सं./टी./३०/८८/४ अभ्यन्तरे निष्प्रमादशुद्धात्मानुभूतिचलनरूपः, बहिर्विषये तु मूलोत्तरगुणमलजनकश्चेति प्रमादः । = अन्तरंग में प्रमाद रहित शुद्धात्मानुभव से डिगानेरूप, और बाह्य विषय में मूलगुणों तथा उत्तरगुणों में मैल उत्पन्न करने वाला प्रमाद है ।
- कषाय के अर्थ में
- अप्रमाद का लक्षण
ध. १४/५,६,९२/८९/११ पंच महव्वयाणि पंच समदीयो तिण्णि गुत्तीओ णिस्सेसकसायाभावो च अप्पमादो णाम । = पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायों के अभाव का नाम अप्रमाद है ।
- प्रमाद के भेद
पं.सं./प्रा./१/१५ विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य । चदु चदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ।१५। = चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, एक निन्द्रा, और एक प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद होते हैं ।१५। (ध.१/१,१,१४/गा,११४/१७८) (गो,जी./मू./३४/६४) (पं.सं./सं./१/३३) ।
रा.वा./८/१/३०/५६४/२९ प्रमादोऽनेकविधः ।३०। भावकायविनयेर्यापथभै-क्ष्यशयनासनप्रतिष्ठापनवाक्यशुद्धिलक्षणाष्टविधसंयम - उत्तम - क्षमामार्द वार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्यादिविषयानुत्साहभेदादनेकविदं प्रमादोऽवसेयः । = भाव, काय, विनय, ईर्यापथ, भैक्ष्य, शयन, आसन, प्रतिष्ठापन और वाक्यशुद्धि इन आठ शुद्धियों तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मों में अनुत्साह या अनादर, भाव के भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का है । (स.सि./८/१/३७६/३ ।
भ.आ./वि./६१२/८१२/४ प्रमादः पञ्चविधः । विकथाः, कषायाः, इन्द्रियविषयासक्तता, निद्रा, प्रणयश्चेति । अथवा प्रमादो नाम संक्लिष्टहस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्रशिक्षणं, काव्यकरणं, समितिष्वनुपयुक्तता । = प्रमाद के पाँच प्रकार हैं - विकथा, कषाय,इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति, निद्रा और स्नेह; अथवा संक्लिष्ट हस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्र, काव्यकरण और समिति में उपयोग न देना ऐसे भी प्रमाद के पाँच प्रकार हैं ।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- प्रमाद के ३७५०० भेद तथा इनकी अक्षसंचार विधि । - देखें - गणित / II / ३ / ३ ।
- प्रमाद कर्मबन्ध प्रत्यय के रूप में । - देखें - बन्ध / १ / २ / १
- प्रमाद का कषाय में अन्तर्भाव । - देखें - प्रत्यय / १ / ३
- प्रमाद व अविरति प्रत्यय में अन्तर । - देखें - प्रत्यय / १ / ५
- साधु को प्रमादवश लगने वाले दोषों की सीमा - देखें - संयत / ३ ।
- प्रमाद के ३७५०० भेद तथा इनकी अक्षसंचार विधि । - देखें - गणित / II / ३ / ३ ।