भय
From जैनकोष
कायोत्सर्ग का एक अतिचार– देखें - व्युत्सर्ग / १ ।
- भय
स.सि./८/९/३८६/१ यदुदयादुद्वेगस्तद्भयम्। = जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय है। (रा.वा./८/९/४/५७४/१८); (गो.क./जी.प्र./३३/२८/८)।
ध.६/१,९-१,२४/४७/९ भीतिर्भयम्। जेहिं कम्मक्खंधेहिं उदयमागदेहि जीवस्स भयमुप्पज्जइ तेसिं भयमिदि सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो। = भीति को भय कहते हैं। उदय में आये हुए जिन कर्म स्कन्धों के द्वारा जीव के भय उत्पन्न होता है उनकी कारण में कार्य के उपचार से ‘भय’ यह संज्ञा है।
ध.१३/५,५,६४/३३६/८ परचक्कागमादओ भयं णाम।
ध.१३/५,५,९६/३६१/१२ जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स सत्त भयाणि समुप्पज्जंति तं कम्मं भयं णाम। = पर चक्र के आगमनादिका नाम भय है। अथवा जिस कर्म के उदय से जीव के सात प्रकार का भय उत्पन्न होता है, वह भय कर्म है।
- भय के भेद
मू.आ./५३ इहपरलोयत्ताणं अगुत्तिमरणं च वेयणाकिस्सि भया। = इसलोक भय, परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक भय ये सात भय हैं। (स.सा./आ./२२८/क.१५५-१६०); (स.सा./ता.वृ./२२८/३०९/९); (पं.ध.उ./५०४-५०५); (द.पा./२ पं.जयचन्द); (रा.वा.हि./६/२४/५१७)। - सातों भयों के लक्षण
स.सा./पं. जयचन्द/२२८/क. १५५-१६० इस भव में लोकों का डर रहता है कि ये लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड़ करेंगे, ऐसा तो इसलोक का भय है, और परभव में न मालूम क्या होगा ऐसा भय रहना परलोक का भय है।१५५। जिसमें किसी का प्रवेश नहीं ऐसे गढ़, दुर्गादिक का नाम गुप्ति है उसमें यह प्राणी निर्भय होकर रहता है। जो गुप्त प्रदेश न हो, खुला हो, उसको अगुप्ति कहते हैं, वहाँ बैठने से जीव को जो भय उत्पन्न होता है उसको अगुप्ति भय कहते हैं।१५८। अकस्मात् भयानक पदार्थ से प्राणी को जो भय उत्पन्न होता है वह आकस्मिक भय है।
पं.ध./उ./श्लोक नं. तत्रेह लोकतो भीतिः क्रन्दितं चात्र जन्मनि। इष्टार्थस्य व्ययो माभून्माभून्मेऽनिष्टसंगमः।५०६। परलोकः परत्रात्मा भाविन्मान्तरांशभाक्। ततः कम्प इव ज्ञासो भीतिः परलोक-तोऽस्ति सा।५१६। भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गतौ। इत्याद्याकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम्।५१७। वेदनागन्तुका बाधा मलानां कोपतस्तनौ। भीतिः प्रागेव कम्पः स्यान्मोहाद्वा परिदेवनम्।५२४। उल्लाधोऽहं भविष्यामि माभून्मे वेदना क्वचित्। मूर्च्छैव वेदनाभीतिश्चिन्तनं वा मुहुर्मुहः।५२५। अत्राणं क्षणिकैकान्ते पक्षे चित्तक्षणादिवत्। नाशात्प्रागंशनाशस्य त्रातुमक्षमतात्मनः।५३१। असज्जन्म सतो नाशं मन्यमानस्य देहिनः कोऽवकाशस्तो मुक्ति मिच्छतोऽगुप्तिसाध्वसात्।५३७। तद्भीतिर्जीवितं भूयान्मा भून्मे मरणं क्वचित्। कदा लेभे न वा दैवात् इत्याधिः स्वे तनुव्यये।५४०। अकस्माज्जामित्युचेराकस्मिकभयं स्मृतम्। तद्यथा विद्युदादीनां पातात्पातोऽसुधारिणाम्।५४३। भीतिर्भूयाद्यथा सौस्थ्यं माभूद्दौस्थ्यं कदापि मे। इत्येवं मानसी चिन्ता पर्याकुलितचेतसा।५४४। =- मेरे इष्ट पदार्थ का वियोग न हो जाये और अनिष्ट पदार्थ का संयोग न हो जाये इस प्रकार इस जन्म में क्रन्दन करने को इहलोक भय कहते हैं।
- परभव में भावि पर्यायरूप अंश को धारण करने वाला आत्मा परलोक है और उस परलोक से जो कंपने के समान भय होता है, उसको परलोक भय कहते हैं।५१६। यदि स्वर्ग में जन्म हो तो अच्छा है, मेरा दुर्गति में जन्म न हो इत्यादि प्रकार से हृदय का आकुलित होना पारलौकिक भय कहलाता है।५१७।
- शरीर में वात, पित्तादि के प्रकोप से आनेवाली बाधा वेदना कहलाती है। मोह के कारण विपत्ति के पहले ही करउ क्रन्दन करना वेदना भय है।५२४। मैं निरोग हो जाऊँ, मुझे कभी भी वेदना न होवे, इस प्रकार की मूर्च्छा अथवा बार-बार चिन्त्वन वेदना भय है।५२५।
- जैसे कि बौद्धों के क्षणिक एकान्त पक्ष में चित्त क्षण-प्रतिसमय नश्वर होता है वैसे ही पर्याय के नाश के पहले अंशिरूप आत्मा के नाश की रक्षा के लिए अक्षमता अत्राणभय (अरक्षा भय) कहलाता है।५३१।
- असत् पदार्थ के जन्म को, सत् के नाश को मानने वाले, मुक्ति को चाहने वाले शरीरधारियों को उस अगुप्ति भय से कहाँ अवकाश है।५३७।
- मैं जीवित रहूँ, कभी मेरा मरण न हो, अथवा दैवयोग से कभी मृत्यु न हो, इस प्रकार शरीर के नाश के विषय में जो चिन्ता होती है, वह मृत्युभय कहलाता है।५४०।
- अकस्मात् उत्पन्न होने वाला महान् दुःख आकस्मिक भय माना गया है। जैसे कि बिजली आदि के गिरने से प्राणियों का मरण हो जाता है।५४३। जैसे मैं सदैव नीरोग रहूँ, कभी रोगी न होऊँ, इस प्रकार व्याकुलित चित्तपूर्वक होने वाली चिन्ता आकस्मिक भीति कहलाती है।५४४।
- भय प्रकृति के बंधयोग्य परिणाम― देखें - मोहनीय / ३ ।
- सम्यग्दृष्टि का भय भय नहीं―देखें - निःशंकित।
- भय द्वेष है― देखें - कषाय / ४ ।