भरत
From जैनकोष
- म.पु./सर्ग/श्लोक नं. पूर्व भव नं. ८ में वत्सकावतीदेश का अतिगृधनामक राजा (८/१९१) फिर चौथे नरक का नारकी (८/१९२) छठे भव में व्याघ्र हुआ (८/१९४) पाँचवें में दिवाकरप्रभ नामक देव (८/२१०) चौथे भव में मतिसागर मत्री हुआ (८/११५) तीसरे भव में अधोग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुआ (९/९०-९२) दूसरे भव में सुबाहु नामक राजपुत्र हुआ (११/१२) पूर्व भव में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ (११/१६०); (युगपत् सर्व भव के लिए देखें - म .पु./४७/३६३-३६४) वर्तमान भव में भगवान् ऋषभ् देव का पुत्र था (१५/१५८) भगवान् की दीक्षा के समय राज्य (१७/७६) और केवलज्ञान के समय चक्र तथा पुत्ररत्न की प्राप्ति की (२४/२) छह खण्ड को जीतकर (३४/३) बाहुबली से युद्ध में हारा (३६/६०) क्रोध के वश भाई पर चक्र चला दिया, परन्तु चक्र उनके पास जाकर ठहर गया (३४/६६) फिर एक वर्ष पश्चात् इन्होंने योगी बाहुबली की पूजा की (३६/१८५) एक समय श्रावकों की स्थापना कर उनको गर्भान्वय आदि क्रियाएँ, (३८/२०-३१०) दीक्षान्वय क्रियाओं (३९/२-८०८) षोडश संस्कार व मत्रों आदि का उपदेश दिया (४०/२-२१६) आयु को क्षीण जान पुत्र अर्ककीर्ति को राज्य देकर दीक्षा धारण की। तथा तत्क्षण मनःपर्यय व केवलज्ञान प्राप्त किया। (४६/३९३-३९५) (विशेष देखें - लिंग / ३ / ५ ) फिर चिरकाल तक धर्मोपदेश दे मोक्ष को प्राप्त किया (४७/३९)। ये भगवान् के मुख्य श्रोता थे (७६/५२९) तथा प्रथम चक्रवर्ती थे। विशेष परिचय–देखें - शलाकापुरुष।
- प.पु./सर्ग/श्लोक नं. राजा दशरथ का पुत्र था (२५/३५) माता केकयी द्वारा वर माँगने पर राज्य को प्राप्त किया था (२५/१६२)। अन्त में रामचन्द्र जी के वनवास से लौटने पर दीक्षा धारण की (८६/९) और कर्मों का नाशकर मुक्ति को प्राप्त किया (८७/१६)।
- यादववंशी कृष्णजी का २२वाँ पुत्र– देखें - इतिहास / १० / २ ।
- ई. ९४५-९७२ में मान्यखेट के राजा कृष्ण तृतीय के मन्त्री थे। (हि.जै.सा.इ./४९ कामता)।