भंग
From जैनकोष
- सप्त भंग निर्देश- देखें - सप्तभंगी / १ ।
- अक्षर के अनेकों भंग - देखें - अक्षर । / ७
- द्वि त्रि संयोगी भंग निकालना- देखें - गणित / II / ४ / १
- अक्ष निकालना- देखें - गणित / II / ३ ।
- भरत क्षेत्र मध्य आर्य खण्ड का एक देश - देखें - मनुष्य / ४ / ४
- भंग सामान्य का लक्षण
- खण्ड, अंश वा भेद के अर्थ में
गो.क./जी.प्र./३५८/५१५/१४ अभिन्नसंख्यानां प्रकृतीनां परिवर्तनं भङ्गः, संख्याभेदेनैकत्वे प्रकृतिभेदेन वा भंगः । = एक संख्या रूप प्रकृतियों में प्रकृतियों का बदलना सो भंग है अथवा संख्या भेदकर एकत्व में प्रकृति भेद के द्वारा भंग होता है ।
देखें - पर्याय / १ / १ (अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार, भेद, छेद और भंग ये एकार्थ वाचक हैं ।)
- श्रुतज्ञान के अर्थ में
ध. १३/५,५,५०/२८४/१३ अहिंसा-सत्यास्तेय-शील-गुण-नय-वचन-द्रव्यादिविकल्पाः भंगाः । ते विधीयन्तेऽनेनेति भंगविधिः श्रुतज्ञानम् । अथवा भंगो वस्तुविनाशः स्थित्युत्पत्त्यविनाभावी, सोऽनेन विधीयते निरूप्यत इति भंगविधि: श्रुतम् । =- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील, गुण, नय, वचन और द्रव्यार्थिक के भेद भंग कहलाते हैं । उनका जिसके द्वारा विधान किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुतज्ञान है ।
- अथवा, भंग का अर्थ स्थिति और उत्पत्ति का अविनाभावी वस्तु-विनाश है, जिसके द्वारा विहित अर्थात् निरूपित किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुत है .
- खण्ड, अंश वा भेद के अर्थ में
- भंग के भेद
गो.क./मू./८२०/९९१ ओघादेन संभवभावंमूलूत्तरं ठवेदूण । पत्तेये अविरुद्धे परसगजोगेवि भंगा हु ।८२०। = गुणस्थान और मार्गणास्थान में मूल व उत्तर भावों को स्थापित करके अक्ष संचार का विधान कर भावों के बदलने से प्रत्येक भंग, अविरुद्ध परसंयोगी भंग, और स्वसंयोगी भंग होते हैं ।
भावनि के भंग
गो.क./मू./८२३/९९३
स्थानगत पदगत
गो.क./मू./८४४/१०/८
जातिपद सर्वपद
गो.क./जी.प्र./८५६/१०३०
पिण्डपद प्रत्येकपद
- भंग के भेदों के लक्षण
- जहाँ जुदे जुदे भाव कहिये तहाँ प्रत्येक भंग जानने । (जैसे औदयिक भाव, उपशमभाव, क्षायिक भाव इत्यादि पृथक्-पृथक्) (गो.क./भाषा/८२०/९९२)
- जहाँ अन्य अन्य भाव के संयोग रूप भंग होंइ तहाँ पर-संयोग कहिये (जैसे औदयिक औपशमिक द्विसंयोगी या औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिक त्रिसंयोगी सन्निपातिक भाव) (गो.क./भाषा/८२०/९९२)
- जहाँ निज भाव के भेदनिका संग रूप ही भंग होइ तहाँ स्वसंयोगी कहिये । (जैसे क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक चारित्रवाला द्विसंयोगी क्षायिक भाव) (गो.क./भाषा/८२०/९९२)
- एक जीव कै एकै काल जितने भाव पाइये तिनके समूह का नाम स्थान है, ताकि अपेक्षाकरि जे भंग करिये तिनको स्थानगत कहिये । (गो.क./भाषा/८२३/९९६)
- एक जीव के एक काल जे भाव पाइये तिनकी एक जाति का वा जुदे जुदे का नाम पद कहिये ताकी अपेक्षा जे भंग करिये तिनकौं पदगत कहिए । (गो.क./भाषा ८२३/९९६)
- जहाँ एक जाति का ग्रहण कीजिये जैसे मिश्रभाव (क्षायोपशमिक भाव) विषै ज्ञान के चार भेद होतै भी एक ज्ञान जाति का ग्रहण है । ऐसे जाति ग्रहण करि जे भंग करिये ते जातिपद्गत भंग जानने । (गो.क./भाषा/८४४/१०१८) ।
- जे जुदे जुदे सर्व भावनि (जैसे क्षायोपशमिक के ही ज्ञान दर्शनादि भिन्न-भिन्न भावनिका) का ग्रहणकरि भंग कीजिये ते सर्वपद्गत भंग जानने । (गो.क./भाषा/८४४/१०१८) ।
- जो भाव समूह एकै काल एक जीव के एक एक ही सम्भवें सर्व न सम्भवै जैसे चारों गति विषैं एक जीव के एकै काल विषै एक गति ही सम्भवे च्यारो न सम्भवै तिस भाव समूह को पिंडपद कहिये । (गो.क./भाषा/८५६/१०३१) ।
- जो भाव एक जीव कै एक काल विषै युगपत भी सम्भवै ऐसे भाव तिनि कौ प्रत्येक-पद कहिये । (जैसे अज्ञान, दर्शन, लब्धि आदि क्षायोपशमिक भाव) ।