मार्दव
From जैनकोष
- मार्दव का स्वरूप
बा.अ.७२ कुलरूवजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किंचि। जो णवि कुव्वदि समणो मद्दवधम्मं हवे तस्स।७२। = जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शात्र और शीलादि के विषय में थोड़ा-सा भी घमण्ड नहीं करता है, उसके मार्दव धर्म होता है। (स.सि. ९/६/४१२/५); (रा.वा./९/६/३/५९५/२४); (भ.आ./वि./४९/१५४/१३); (त.सा./६/१५); (चा.सा./६१/४)।
स.सि./६/१८/३३४/१२ मृदोर्भावो मार्दवम्। = मृदु का भाव मार्दव है। (रा.वा. ६/१८/१/५२६/२३)।
का.अ./मू./३९५ उत्तमणाणपहाणो उत्तमतवयरणकरणसीलो वि। अप्पाणं जो हीलदि मद्दवरयणं भवे तस्स।३९५। = उत्कृष्ट ज्ञानी और उत्कृष्ट तपस्वी होते हुए भी जो मद नहीं करता वह मार्दवरूपी रत्न का धारी है। - मार्दव धर्म लोकलाज आदि से निरपेक्ष है
भ.आ./वि./४६/१५४/१३ जात्याद्यभिमानाभावो मानदोषानपेक्षश्च दृष्टकार्यानपाश्रयो मार्दवम्। = जाति आदि के अभिमान का अभाव मार्दव है। लोकभय से अथवा अपने ऐहिक कार्यों में बाधा होने के भय से मान न करना सच्चा मार्दव नहीं है। - मार्दव धर्म पालनार्थ कुछ भावनाएँ
भ.आ./मू./१४२७-१४३० को एत्थ मज्झ माणो बहुसो णीचत्तणं पि पत्तस्स। उच्चत्ते य अणिच्चे उवट्ठिदे चावि णीचत्ते।१४२७। अधिगेसु बहुसु संतेसु ममादो एत्थको महं माणो। को बिब्भओ वि बहुसो पत्ते पुव्वम्मि उच्चत्ते।१४२८. जो अवमाण्णकारणं दोसं परिहरइ णिच्चमाउत्तो। सो णाम होदि माणी ण दुगुणचत्तेण माणेण।१४२९। इह य परत्तय लोए दोसे बहुगे य आवहदि माणो। इदि अप्पणो गणित्ता माणस्स विणिग्गहं कुज्जा।१४३०। = मैं इस संसार में अनन्त बार नीच अवस्था में उत्पन्न हुआ हूँ। उच्चत्व व नीचत्व दोनों अनित्य हैं, अत: उच्चता प्राप्त होकर पुनः नष्ट हो जाती है और नीचता प्राप्त हो जाती है।१४२७। मुझसे अधिक कुल आदि से विशिष्ट लोग जगत् में भरे पड़े हैं। अत: मेरा अभिमान करना व्यर्थ है। दूसरे ये कुल आदि तो पूर्व काल में अनेक बार प्राप्त हो चुके हैं, फिर इनमें आश्चर्ययुक्त होना क्या योग्य है ?।१४२८। जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषों का त्याग करके निर्दोष प्रवृत्ति करता है वही सच्चा मानी है, परन्तु गुणरहित होकर भी मान करने से कोई मानी नहीं कहा जा सकता।१४२९। इस जन्म में और पर जन्म में यह मानकषाय बहुत दोषों को उत्पन्न करती है, ऐसा जानकर सत्पुरुष मान का निग्रह करते हैं।१४३०।
पं.वि./१/८७-८८ तद्धार्यते किमुत बोधदृशा समस्तम्। स्वप्नेन्द्रजालसदृशं जगदीक्षमाणैः।८७। कास्था सद्मनि सुन्दरेऽपि परितो दन्दह्यमानाग्निभिः, कायादौ तु जरादिभि: प्रतिदिनं गच्छत्यवस्थान्तरम्। इत्यालोचयतो हृदि प्रशमिन: शश्वद्विवेकोज्जवले, गर्वस्यावसर: कुतोऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि। = ज्ञानमय चक्षु से समस्त जगत् को स्वप्न अथवा इन्द्रजाल के समान देखने वाले साधुजन क्या उस मार्दव धर्म को नहीं धारण करते हैं।८७। सब ओर से अतिशय जलनेवाली अग्नियों से खण्डहररूप अवस्था को प्राप्त होने वाले सुन्दर गृह के समान प्रतिदिन वृद्धत्व आदि के द्वारा दूसरी अवस्था को प्राप्त होने वाले शरीरादि बाह्य पदार्थों में नित्यता का विश्वास कैसे किया जा सकता है। इस प्रकार सदा विचार करने वाले साधु के निर्मल विवेकयुक्त हृदय में जाति, कुल एवं ज्ञान आदि सभी पदार्थों के विषय में अभिमान करने का अवसर कहाँ से हो सकता है ?।८८।
अन.ध./६/९-१६/५७२ हृत्सिन्धुर्विधिशिल्पिकल्पितकुलाद्युत्कर्षहर्षोर्मिभिः, किर्मीर: क्रियतां चिराय सुकृतां म्लानिस्तु पुंमानिनाम्। मानस्यात्मभुवापि कुत्रचिदपि स्वोत्कर्षसंभावनं, तद्धयेयेऽपि विधेश्चरेयमिति धिग्मानं पुमुत्प्लाविनम्।९। गर्वप्रत्यग्नगकवलिते विश्वदीपे विवेकत्वष्टर्युच्चै:, स्फुरितदुरितं दोषमन्देहवृन्दै:। सत्रोद्वृत्ते तमसि हत्दृग् जन्तुराप्तेषु भूयो, भूयोऽभ्याजत्स्वपि सजति ही स्वैरमुन्मार्ग एव।१०। जगद्वैचित्र्येऽस्मिन्विलसति विधौ काममनिशं, स्वतन्त्रो न क्वास्मीत्यभिनिविशतेऽहंकृतितम:। कुधीर्येनादत्ते किमपि तदद्यं यद्रसवशाच्चिरं भुङ्क्ते नीचैर्गतिजमपमानज्वरभरम्।११। भद्रं मार्दववज्राय येन निर्लूनपक्षतिः। पुनः करोति मानाद्रिनोत्थानाय मनोरथम्।१२। क्रियेत गर्वः संसारे न श्रूयते नृपोऽपि चेत्। दैवाज्जात: कृमिर्गूथे भृत्यो नेक्ष्येत वा भवन्।१३। प्राच्यानैदंयुगीनानथ परमगुणग्रामसामृद्धयसिद्धा–नद्धाध्यायन्निरुन्ध्यन्निरुन्ध्यान्म्रदिमपरिणत: शिर्मदं दुर्मदारिम्। छेत्तुं दौर्गत्यदुःखं प्रवरगुरुगिरा संगरे सद्व्रतास्तै:, क्षेप्तुं कर्मारिचक्रं सुहृदमिव शितैर्दीपयेद्वाभिमानम्।१४। मार्दवाशनिनिर्लूनपक्षो मायाक्षितिं गत:। योगाम्बुनैव भेद्योऽन्तर्वहता गर्वपर्वत:।१५। मानोऽवर्णमिवापमानमभितस्तेनेऽ-र्ककीर्तेस्तथा, मायाभूतिमचाकरत्सगरजान् षष्टिं सहस्राणि तान्। तत्सौनन्दमिवादिराट् परमरं मनग्रहान्मोचयेत्, तन्वन्मार्दवमाप्नुयात् स्वयमिमं चोच्छिद्य तद्वच्छिवम्।१६। = कर्मोदय जनित कुल आदि के अतिरेक की चित्रविचित्रता के निमित्त से व्यक्ति अपने को उत्कृष्ट समझता है, सो व्यर्थ है, क्योंकि, कभी-कभी अपने पुत्रों के द्वारा भी उसका मान मर्दन कर दिया जाता है।९। कर्तव्य, अकर्तव्य आदि का विवेक नष्ट करके अहंकाररूप अन्धकार को प्राप्त व्यक्ति अभीष्ट मार्ग को छोड़कर कुमार्ग का आश्रय लेता है।१०। पुण्य कर्म का उदय होने पर व्यक्ति अत्यन्त अंहकार करने लगता है और यह भूल जाता है, कि नीच गतियों आदि में अपमान पाना इस अहंकार का ही फल है।११। मान को समूल नष्ट करने वाला यह मार्दव धर्म जयवन्त हो।१२। अरे ! साधारण जन की बात तो दूर रही, राजा भी मरकर पापकर्म के उदय से विष्टा में कीड़ा हो जाता है।१३। आत्मा का अत्यन्त अपाय करने वाला यह मान प्रबल शत्रु है, मार्दव धर्म के द्वारा साधुजनों को सदा इसे नाश करना चाहिए। अथवा यदि मान ही करना है तो अपनी व्रतादिरूप प्रतिज्ञाओं पर करे जिससे कि धर्म के शत्रुओं का संहार हो।१४। मार्दव से गर्वरूप पर्वत चूर-चूर हो जाता है।१५। अहंकार के कारण भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीर्ति को कितना अपमान सहना पड़ा, तथा सगर चक्रवर्ती के ६०,००० पुत्रों की माया मणिकेतु देव ने क्षणभर में भस्म कर दी। अत: जिस प्रकार भरतराज ने बाहुबलिकुमार का मान दूर करने के लिए प्रयत्न किया उसी प्रकार साधुजन भी सदा भव्यजनों का अहंकाररूप भूत दूर करने का प्रयत्न करते रहें।१६। - मार्दव धर्म की महिमा
रा.वा./९/६/२७/५९९/१२ मार्दवोपेतं गुरवोऽनुगृह्णन्ति, साधवोऽपि साधुमामन्यन्ते। ततश्च सम्यग्ज्ञानादीनां पात्रीभवति। तत: स्वर्गापवर्गफलावाप्तिः। मलिने मनसि व्रतशीलानि नावतिष्ठन्ते। साधवश्चैनं परित्यजन्ति। तन्मूला सर्वा विपद:। = मार्दव गुणयुक्त व्यक्ति पर गुरुओं का अनुग्रह होता है। साधुजन भी उसे साधु मानते हैं। गुरु के अनुग्रह से सम्यग्ज्ञान आदि की प्राप्ति होती है और उससे स्वर्गादि सुख मिलते हैं। मलिन मन में व्रत शीलादि नहीं ठहरते, साधुजन उसे छोड़े देते हैं। तात्पर्य यह कि अहंकार समस्त विपदाओं की जड़ है। (चा.सा./६१/५)।