वरांगकुमार
From जैनकोष
वरांग चरित्र/सर्ग/श्लोक - उत्तमपुर के भोजवंशीय राजा धर्मसेन का पुत्र था । (२/१) । अनुपमा आदि १० कन्याओं का पाणिग्रहण किया । (२/८७) । मुनिदर्शन । (३/३५; ११/३४) । अणुव्रत धारण । (११/४३) । राज्य प्राप्ति (११/६५) । सौतेले भाइयों का द्वेष (११/६५) । मन्त्रियों ने षङ्यन्त्र करके कुशिक्षित घोड़े पर सवार कराया । (१२/३७) । घोड़े ने अन्ध कूप में गिरा दिया । वहाँ से लता पकड़कर बाहर निकला । (१२/४९) । सिंह के भय से सारी रात वृक्ष पर बसेरा (१२/५९) । हाथी द्वारा सिंह का हनन । (१२/६६) । सरोवर में स्नान करते हुए नक्र ने पाँव पकड़ लिया (१३/३) । देव ने रक्षा की । देवी के द्वारा विवाह की प्रार्थना की जाने पर अपने व्र्रत पर दृढ़ रहा । (१३/३८)। भीलों द्वारा बाँधा गया । (१३/४९) । देवी पर बलि चढ़ाने को ले गये । भीलराज के पुत्र के सर्प काटे का विष दूर करने से वहाँ से छुटकारा मिला । (१३/६५) । पुनः एक साँप ने पकड़ लिया । (१३/७८) । दोनों में परस्पर प्रेम हो गया । भीलों के साथ युद्ध में कौशल दिखाया । पूज्यता प्राप्त हुई । (१४/७१) । श्रेष्ठी पद प्राप्ति (१४/८६) । राजा देवसेन के साथ युद्ध तथा विजय प्राप्ति (१८/१०३) । राजकन्या सुनन्दा से विवाह । (१९/२०) । मनोरमा कन्या के मोहित होने पर दूत भेजने पर शील पर दृढ़ रहना । (१९/६१) । मनोरमा के साथ विवाह । (२०/४२) । पिता धर्म पर शत्रु की चढ़ाई सुनकर अपने देश में गये । उनके जाते ही शत्रु भाग गया । (२०/८०) । राज्य प्राप्ति । (२०/८५) । धर्म व न्यायपूर्वक राज्य कार्य की सुव्यवस्था । (सर्ग २१-२७) । पुत्रोत्पत्ति । (२८/५) । दीक्षा धारण । (२९/८७) । सर्वार्थसिद्धि में देव हुए । (३१/१०९) ।