विघ्यात संक्रमण निर्देश
From जैनकोष
विघ्यात संक्रमण निर्देश
१. विघ्यात संक्रमण का लक्षण
नोट - [अपकर्षण विधान में बताये गये स्थिति व अनुभाग काण्डक व गुणश्रेणीरूप परिणामों में प्रवृत्त होना विघ्यात संक्रमण है। इसका भागाहार भी यद्यपि अंगुल/असंख्यात भाग है, परन्तु यह उद्वेलना के भागाहार से असंख्यात गुणहीन है, अत: इसके द्वारा प्रति समय उठाया गया द्रव्य बहुत अधिक है। मिथ्यात्व व मिश्र मोह इन दो प्रकृतियों को जब सम्यक्प्रकृतिरूप से परिणमाता है तब यह संक्रमण होता है। वेदक सम्यक्त्व वाले को तो सर्व ही अपनी स्थिति काल में वहाँ तक होता रहता है जब तक कि क्षपणा प्रारम्भ करता हुआ अध:प्रवृत्त परिणाम का अन्तिम समय प्राप्त होता नहीं। उपशम सम्यक्त्व के भी अपने सर्व काल में उसी प्रकार होता रहता है, परन्तु यहाँ प्रथम अन्तर्मुहूर्त में गुणसंक्रमण करता है पश्चात् उसका काल समाप्त होने के पश्चात् विघ्यात प्रारम्भ होता है।]
गो.क./जी.प्र./४१३/५७६/८ विघ्यातविशुद्धिकस्य जीवस्य स्थित्यनुभागकाण्डकगुणश्रेण्यादिपरिणामेष्वतीतेषु प्रवर्तनाद्विध्यातसंक्रमणं णाम। =मंद विशुद्धता वाले जीव की, स्थिति अनुभाग के घटाने रूप भूतकालीन स्थिति काण्डक और अनुभाग काण्डक तथा गुणश्रेणी आदि परिणामों में प्रवृत्ति होना विघ्यात संक्रमण है।