विभ्रम
From जैनकोष
- मिथ्याज्ञान के अर्थ में
न्या.वि./वृ./१/३९/२८२/२१ विभ्रमैश्च मिथ्याकारग्रहणशक्तिविशेषैश्च। = विभ्रम अर्थात् मिथ्याकाररूप से ग्रहण करने की शक्तिविशेष।
नि.सा./ता./वृ./५१ विभ्रमो ह्यज्ञानत्वमेव। = (वस्तुस्वरूप का) अज्ञानपना या अजानपना ही विभ्रम है।
द्र.सं./टी./४२/१८०/९ अनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्यक्षणिकेकान्तादिरूपेण ग्रहणं विभ्रमः। तत्र दृष्टान्तः शुक्तिकायां रजतविज्ञानम्। = अनेकान्तात्मक वस्तु को ‘यह नित्य ही है, या अनित्य ही है’ ऐसे एकान्तरूप जानना सो विभ्रम है। जैसे कि सीप में चाँदी का और चाँदी में सीप का ज्ञान हो जाना।
- स्त्री के हाव-भाव के अर्थ में
प.प्र./टी./१/१२१/१११/८ पर उद्धृत-हावो मुखविकारः स्याद्भावश्चित्तेत्थ उच्यते। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूयुगान्तयोः। = स्त्रीरूप के अवलोकन की अभिलाषा से उत्पन्न हुआ मुखविकार ‘हाव’ कहलाता है, चित्त का विकार ‘भव’ कहलाता है, मुँह का अथवा दोनों भवों का टेढ़ा करना ‘विभ्रम’ है और नेत्रों के कटाक्ष को ‘विलास’ कहते हैं।