व्यतिकर
From जैनकोष
स्या.मं./२४/२९२/११ येन स्वभावेन सामान्यं तेन विशेषः, येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकरः । = पदार्थ, जिस स्वभाव से सामान्य है उसी स्वभाव से विशेष है और जिस स्वभाव से विशेष है उसी से सामान्य है । अनेकान्तवाद में यह बात दर्शाकर नैयायिक लोग इस सिद्धान्त में व्यतिकर दोष उठाते हैं ।
स.भ.त./८२/८ परस्परविषयगमनं व्यतिकरः । = जिस अवच्छेदक स्वभाव से अस्तित्व है उससे नास्तित्व क्यों न बन बैठे और जिस स्वभाव से नास्तित्व नियत किया है उससे अस्तित्व व्यवस्थित हो जाये । इस प्रकार परस्पर में व्यवस्थापक धर्मों का विषयगमन करने से अनेकान्त पक्ष में व्यतिकर दोष आता है; ऐसा नैयायिक कहते हैं ।