व्यतिरेक
From जैनकोष
- व्यतिरेक
रा.वा./४/४२/११/२५२/१६ अथ के व्यतिरेकाः । वाग्विज्ञानव्यावृत्तिलिङ्गसमधिगम्यपरस्परविलक्षणा उत्पत्तिस्थि-तिविपरिणामवृद्धिक्षयविनाशधर्माणः गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्यासम्यक्त्वादयः । = व्यावृत्ताकार अर्थात् भेद द्योतक बुद्धि और शब्दप्रयोग के विषयभूत परस्पर विलक्षण उत्पत्ति, स्थिति, विपरिणाम, वृद्धि, ह्रास, क्षय, विनाश, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, संयम, लेश्या, सम्यक्त्व आदि व्यतिरेक धर्म हैं ।
प.मु./४/९ अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् । = भिन्न-भिन्न पदार्थों में रहने वाले विलक्षण परिणाम को व्यतिरेक विशेष कहते हैं, जैसे गौ और भैंस ।
देखें - अन्वय –(अन्वय व व्यतिरेक शब्द से सर्वत्र विधि-निषेध जाना जाता है ।)
- व्यतिरेक के भेद
पं.ध./पू./भाषाकार/१४६ द्रव्य क्षेत्र काल व भाव से व्यतिरेक चार प्रकार का होता है ।–विशेष देखें - सप्तभंगी ।
- द्रव्य के धर्मों या गुणों में परस्पर व्यतिरेक नहीं है
पं.ध./पू./श्लो.ननु च व्यतिरेकत्वं भवतु गुणानां सदन्वयत्वेऽपि । तदनेकत्वप्रसिद्धौ भावव्यतिरेकतः सतामिति चेत् ।१४५। तन्न यतोऽस्ति विशेषो व्यतिरेकस्यान्वयस्य चापि यथा । व्यतिरेकिणो ह्यनेकेऽप्येकः स्यादन्वयी गुणो नियमात् ।१४६। भवति गुणांशः कश्चित् स भवति नान्यो भवति स चाप्यन्यः । सोऽपि न भवति तदन्यो भवति तदन्योऽपि भावव्यतिरेकः ।१५०। तल्लक्षणं यथा स्याज्ज्ञानं जीवो य एव तावांश्च । जीवो दर्शनमिति वा तदभिज्ञानात् एव तावांश्च ।१५५। = प्रश्न–स्वतः सत् रूप गुणों में सत् सत् यह अन्वय बराबर रहते हुए भी उनमें परस्पर अनेकता की प्रसिद्धि होने पर उनमें भावव्यतिरेक हेतुक व्यतिरेकत्व होना चाहिए? ।१४५। उत्तर–यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अन्वय का और व्यतिरेक का परस्पर में भेद है । जैसे–नियम से व्यतिरेकी अनेक होते हैं और अन्वयी गुण एक होता है ।१४६। [भाव व्यतिरेक भी गुणों में परस्पर नहीं होता है, बल्कि] जो कोई एक गुण का अविभागी प्रतिच्छेद है, वह वह ही होता है, अन्य नहीं हो सकता और वह दूसरा भी वह पहिला नहीं हो सकता, किन्तु जो उससे भिन्न है वह उससे भिन्न ही रहता है ।१५०। उसका लक्षण और गुणों में भावव्यतिरेक का अभाव इस प्रकार है, जैसे कि जो ही और जितना ही जीव ज्ञान है वही तथा उतना ही जीव एकत्व प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से दर्शन भी है ।१५५।
- पर्याय व्यतिरेकी होती है– देखें - पर्याय / २ ।
- अन्वय व्यतिरेक में साध्यसाधक भाव– देखें - सप्तभंगी / ५ / ५ ।