शुक्लध्यान निर्देश
From जैनकोष
शुक्लध्यान निर्देश
१. शुक्ल ध्यान में श्वासोच्छ्वास का निरोध हो जाता है
प.प्र./मू./१/१६२ णास-विणिग्गउ सासडा अंवरि जेत्थु विलाइ। तुट्ठइ मोहु तड त्ति तहिं मणु अत्थवणहं जाइ।१६२। = नाक से निकला जो श्वास वह जिस निर्विकल्प समाधि में मिल जावे, उसी जगह मोह शीघ्र नष्ट हो जाता है, और मन स्थिर हो जाता है।१६२।
भ.आ./वि./१८८८/१६९१/४ अकिरियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचार...। = इस (समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति) ध्यान में सर्व श्वासोच्छ्वास का प्रचार बन्द हो जाता है।
२. पृथक्त्व वितर्क में प्रतिपातपना सम्भव है
ध.१३/५,४,२६/पृ. पंक्ति तदो परदो अत्थंतरस्स णियमा संकमदि (७८/१०) उवसंतकसाओ...पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणं...अंतोमुहुत्तकालं ज्झायइ (७८/१४) एवं एदम्हादो णिव्वुगमणाणुवलंभादो (७९/१) उवसंत। = अर्थ से अर्थान्तर पर नियम से संक्रमित होता है।...इस प्रकार उपशान्त कषाय जीव पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान को अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है।...इस प्रकार...इस ध्यान के फल से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती।
३. एकत्व वितर्क में प्रतिपात का विधि निषेध
स.सि./९/४४/४५६/८ ध्यात्वा पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम् । = वह ध्यान करके पुन: नहीं लौटता। इस प्रकार एकत्व वितर्क ध्यान कहा।
ध.१३/५,४,२६/८१/६ उवसंतकसायम्मि भवद्धाखएहि कसाएसु णिवदिदम्मि पडिवादुवलंभादो। = उपशान्त कषाय जीव के भवक्षय और कालक्षय के निमित्त से पुन: कषायों के प्राप्त होने पर एकत्व वितर्कअविचार ध्यान का प्रतिपात देखा जाता है।
४. चारों शुक्लध्यानों में अन्तर
भ.आ./वि./१८८४-१८८५/१६८७/२० एकद्रव्यालम्बनत्वेन परिमितानेकसर्वपर्यायद्रव्यालम्बनात् प्रथमध्यानात्समस्तवस्तुविषयाभ्यां तृतीयचतुर्थाभ्यां च विलक्षणता द्वितीयस्यानया गाथया निवेदिता। क्षीणकषायग्रहणेन उपशान्तमोहस्वामिकत्वात् । सयोग्ययोगकेवलिस्वामिकाभ्यां च भेद: पूर्ववदेव। पूर्वव्यावर्णितवीचाराभावादवीचारत्वं। = यह ध्यान (एकत्व वितर्क ध्यान) एक द्रव्य का ही आश्रय करता है इसलिए परिमित अनेक पर्यायों सहित अनेक द्रव्यों का आश्रय लेने वाले प्रथम शुक्लध्यान से भिन्न है। तीसरा और चौथा ध्यान सर्व वस्तुओं को विषय करते हैं अत: इनसे भी यह दूसरा शुक्ल ध्यान भिन्न है, ऐसा इस गाथा से सिद्ध होता है। इस ध्यान का स्वामित्व क्षीण कषाय वाला मुनि है पहले ध्यान का स्वामित्व उपशान्त कषाय वाला मुनि है और तीसरे तथा चौथे शुक्लध्यान का स्वामित्व सयोग केवली तथा अयोग केवली मुनि है। अत: स्वामित्व की अपेक्षा से दूसरा शुक्लध्यान इन ध्यानों से भिन्न है। (भ.आ./वि./१८८२/१६८५/४)।
५. शुक्ल ध्यान में सम्भव भाव व लेश्या
चा.सा./२०५/५ तत्र शुक्लतरलेश्याबलाधानमन्तर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं क्षायोपशमिकभावम् । = यह ध्यान शुक्लतर लेश्या के बल से होता है और अन्तर्मुहूर्त काल के बाद बदल जाता है। यह क्षायोपशमिक भाव है।