शुक्लध्यान भेद व लक्षण
From जैनकोष
भेद व लक्षण
१. शुक्लध्यान सामान्य का लक्षण
स.सि./९/२८/४४५/११ शुचिगुणयोगाच्छुक्लम् । (यथा मलद्रव्यापायात् शुचिगुणयोगाच्छुक्लं वस्त्र तथा तद्गुणसाधर्म्यादात्मपरिणामस्वरूपमपि शुक्लमिति निरुच्यते। (रा.वा.)। = जिसमें शुचि गुण का सम्बन्ध है वह शुक्ल ध्यान है। (जैसे मैल हट जाने से वस्त्र शुचि होकर शुक्ल कहलाता है उसी तरह निर्मल गुणयुक्त आत्म परिणति भी शुक्ल है। रा.वा.) (रा.वा./९/२८/४/६२७/३१)।
ध.१३/५,४,२६/७७/९ कुदो एदस्स सुक्कत्तं कसायमलाभावादो। = कषाय मल का अभाव होने से इसे शुक्लपना प्राप्त है।
का.अ./मू./४८३ जत्थगुणा सुविसुद्धा उपसम-खमणं च जत्थ कम्माणं। लेस्सावि जत्थ सुक्का तं सुक्कं भण्णदे झाणं।४८३। = जहाँ गुण अतिविशुद्ध होते हैं, जहाँ कर्मों का क्षय और उपशम होते हैं, जहाँ लेश्या भी शुक्ल होती है उसे शुक्लध्यान कहते हैं।४८३।
ज्ञा./४२/४ निष्क्रियं करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् । अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुक्लमिति पठ्यते।४। शुचिगुणयोगाच्छुक्लं कषायरजस: क्षयादुपशमाद्वा। वैडूर्यमणिशिखा इव सुनिर्मलं निष्प्रकम्पं च। = १. जो निष्क्रिय व इन्द्रियातीत है। ‘मैं ध्यान करूं’ इस प्रकार के ध्यान की धारणा से रहित हैं, जिसमें चित्त अन्तर्मुख है वह शुक्लध्यान है।४। २. आत्मा के शुचि गुण के सम्बन्ध से इसका नाम शुक्ल पड़ा है। कषायरूपी रज के क्षय से अथवा उपशम से आत्मा के सुनिर्मल परिणाम होते हैं, वही शुचिगुण का योग है। और वह शुक्लध्यान वैडूर्यमणि की शिखा के समान सुनिर्मल और निष्कंप है। (त.अनु./२२१-२२२)।
द्र.सं./मू./५६ मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किंविजेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं।५६। = हे भव्य ! कुछ भी चेष्टा मत कर, कुछ भी मत बोल, और कुछ भी चिन्तवन मत कर, जिससे आत्मा निजात्मा में तल्लीन होकर स्थिर हो जावे, आत्मा में लीन होना ही परम ध्यान है।५६।
नि.सा./ता.वृ./१२३ ध्यानध्येयध्यातृतत्फलादिविविधविकल्पनिर्मुक्तान्तर्मुखाकारनिखिलकरणग्रामगोचरनिरंजननिजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपशुक्लध्यानम् । = ध्यान-ध्येय-ध्याता, ध्यान का फल आदि के विविध विकल्पों से विमुक्त, अन्तर्मुखाकार, समस्त इन्द्रिय समूह के अगोचर निरंजन निज परमतत्त्व में अविचल स्थितिरूप वह निश्चय शुक्लध्यान है। (नि.सा./ता.वृ./८९)।
प्र.सा./ता.वृ./१२ रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानमागमभाषया शुक्लध्यानम् । = रागादि विकल्प से रहित स्वसंवेदन ज्ञान को आगम भाषा में शुक्लध्यान कहा है।
द्र.सं./टी./४८/२०५/३ स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधिलक्षणं शुक्लध्यानम् । = निज शुद्धात्मा में विकल्प रहित समाधिरूप शुक्लध्यान है।
भा.पा.टी./७८/२२६/१८ मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुक्लम् । = मल रहित आत्मा के परिणाम को शुक्ल कहते हैं।
२. शुक्लध्यान के पद
भ.आ./मू./१८७८-१८७९ ज्झाणं पुधत्तसवितक्कसविचारं हवे पढमसुक्कं। सवितक्केक्कत्तावीचारं ज्झाणं विदियसुक्कं।१८७८। सुहुमकिरियं खु तदियं सुक्कज्झाणं जिणेहिं पण्णत्तं। वेंति चउत्थं सुक्कं जिणा समुच्छिण्णकिरियं तु।१८७९। = प्रथम सवितर्क सविचार शुक्लध्यान, द्वितीय सवितर्कैकत्ववीचार शुक्लध्यान, तीसरा सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यान, चौथा समुच्छिन्न क्रिया नामक शुक्लध्यान कहा गया है। (मू.आ./४०४-४०५); (त.सू./९/३९); (रा.वा./१/७/१४/४०/१६); (ध.१३/५,४,२६/७७/१०); (ज्ञा./४२/९-११); (द्र.सं./टी./४८/२०३/३)।
चा.सा./२०३/४ शुक्लध्यानं द्विविधं, शुक्लं परमशुक्लमिति। शुक्लं द्विविधं पृथक्त्ववितर्कवीचारमेकत्ववितर्कावीचारमिति। परमशुक्ल द्विविधं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसमुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिभेदात् । तल्लक्षणं द्विविधं, बाह्यमाध्यात्मिकमिति। = शुक्लध्यान के दो भेद हैं-एक शुक्ल और दूसरा परम शुक्ल। उसमें भी शुक्लध्यान दो प्रकार का है-पृथक्त्ववितर्क विचार और दूसरा एकत्ववितर्कअविचार। परम शुक्ल भी दो प्रकार का है-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और दूसरा समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति। इस समस्त शुक्लध्यान के लक्षण भी दो प्रकार हैं-एक बाह्य दूसरा आध्यात्मिक।
३. बाह्य व आध्यात्मिक शुक्लध्यान का लक्षण
चा.सा./२०३/५ गात्रनेत्रपरिस्पन्दविरहितं जृम्भजृम्भोद्गारादिवर्जितमनभिव्यक्तप्राणापानप्रचारत्वमुच्छिन्नप्राणापानप्रचारत्वमपराजितत्वं बाह्यं, तदनुमेयं परेषामात्मन: स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं तदुच्यते। = शरीर और नेत्रों को स्पन्द रहित रखना, जँभाई जम्भा उद्गार आदि नहीं होना, प्राणापान का प्रचार व्यक्त न होना अथवा प्राणापान का प्रचार नष्ट हो जाना बाह्य शुक्लध्यान है। यह बाह्य शुक्लध्यान अन्य लोगों को अनुमान से जाना जा सकता है तथा जो केवल आत्मा को स्वसंवेदन हो वह आध्यात्मिक शुक्लध्यान कहा जाता है।
४. शून्यध्यान का लक्षण
ज्ञानसार/३७-४७ किं बहुना सालम्बं परमार्थेन ज्ञात्वा। परिहर कुरु पश्चात् ध्यानाभ्यासं निरालम्बम् ।३७। तथा प्रथमं तथा द्वितीयं तृतीयं निश्रेणिकायां चरमाना:। प्राप्नोति समुच्चयस्थानं तथायोगी स्थूलत: शून्याम् ।३८। रागादिभि: वियुक्तं गतमोहं तत्त्वपरिणतं ज्ञानम् । जिनशासने भणितं शून्यं इदमीदृशं मनुते।४१। इन्द्रियविषयातीतं अमन्त्रतन्त्र-अध्येय-धारणाकम् । नभ: सदृशमपि न गगनं तत् शून्यं केवलं ज्ञानम् ।४२। नाहं कस्यापि तनय: न कोऽपि मे आस्त अहं च एकाकी। इति शून्य ध्यानज्ञाने लभते योगी परं स्थानम् ।४३। मन-वचन-काय-मत्सर-ममत्वतनुधनकलादिभि: शून्योऽहम् । इति शून्यध्यानयुक्त: न लिप्यते पुण्यपापेन।४४। शुद्धात्मा तनुमात्र: ज्ञानी चेतनगुणोऽहम् एकोऽहम् । इति ध्याने योगी प्राप्नोति परमात्मकं स्थानम् ।४५। अभ्यन्तरं च कृत्वा बहिरर्थ-सुखानि कुरु शून्यतनुम् । निश्चिन्त-स्तथा हंस: पुरुष: पुन: केवली भवति।४७। = बहुत कहने से क्या ? परमार्थ से सालम्बन ध्यान (धर्मध्यान) को जानकर उसे छोड़ना चाहिए तथा तत्पश्चात् निरालम्बन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।३७। प्रथम द्वितीय आदि श्रेणियों को पार करता हुआ वह योगी चरम स्थान में पहुँचकर स्थूलत: शून्य हो जाता है।३८। क्योंकि रागादि से मुक्त, मोह रहित, स्वभाव परिणत ज्ञान ही जिनशासन में शून्य कहा जाता है।४१। इन्द्रिय विषयों से अतीत, मन्त्र, तन्त्र तथा धारणा आदि रूप ध्येयों से रहित जो आकाश न होते हुए भी आकाशवत् निर्मल है, वह ज्ञान मात्र शून्य कहलाता है।४२। मैं किसी का नहीं, पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं हैं, मैं अकेला हूँ शून्य ध्यान के ज्ञान में योगी इस प्रकार के परम स्थान को प्राप्त करता है।४३। मन, वचन, काय, मत्सर, ममत्व, शरीर, धन-धान्य आदि से मैं शून्य हूँ इस प्रकार के शून्य ध्यान से युक्त योगी पुण्य पाप से लिप्त नहीं होता।४४। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ, शरीर मात्र हूँ, ज्ञानी हूँ, चेतन गुण स्वरूप हूँ, एक हूँ, इस प्रकार के ध्यान से योगी परमात्म स्थान को प्राप्त करता है।४५। अभ्यन्तर को निश्चित करके तथा बाह्य पदार्थों सम्बन्धी सुखों व शरीर को शून्य करके हंस रूप पुरुष अर्थात् अत्यन्त निर्मल आत्मा केवली हो जाता है।४७।
आचारसार/७७-८३ जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमणात् प्रीति: शरीरेऽपि च। जोषं वागपि धारयत्वविरतानन्दात्मन: स्वात्मनश्चिन्तायमपि यातुमिच्छति मनोदोषै: समं पञ्चताम् ।७७। यत्र न ध्यानं ध्येयं ध्यातारौ नैव चिन्तनं किमपि। न च धारणा विकल्पस्तं शून्यं सुष्ठु भावये।७८। शून्यध्यानप्रविष्टो योगी स्वसद्भावसंपन्न:। परमानन्दस्थितो भृतावस्थ: स्फुटं भवति।७९। तत्त्रिकमयो ह्यात्मा अवशेषालम्बनै: परिमुक्त:। उक्त: स तेन शून्यो ज्ञानिभिर्न सर्वथा शून्य:।८०। यावद्विकल्प: कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं चिन्ता वा भावनाथवा।८१। = सब रस विरस हो जाते हैं, कथा गोष्ठी व कौतुक विघट जाते हैं, इन्द्रियों के विषय मुरझा जाते हैं, तथा शरीर में प्रीति भी समाप्त हो जाती है व वचन भी मौन धारण कर लेता है। आत्मा की आनन्दानुभूति के काल में मन के दोषों सहित स्वात्म विषयक चिन्ता भी शान्त होने लगती है।७७। जहाँ न ध्यान है, न ध्येय है, न ध्याता है, न कुछ चिन्तवन है, न धारणा के विकल्प हैं, ऐसे शून्य को भली प्रकार भाना चाहिए।७८। शून्य ध्यान मे प्रविष्ट योगी स्व स्वभाव से सम्पन्न, परमानन्द में स्थित तथा प्रगट भरितावस्थावत् होता है।७९। ज्ञानदर्शन चारित्र इन तीनों मयी आत्मा निश्चय से अवशेष समस्त अवलम्बनों से मुक्त हो जाता है। इसलिए वह शून्य कहलाता है, सर्वथा शून्य नहीं।८०। ध्यान युक्त योगी को जब तक कुछ भी विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक वह शून्य ध्यान नहीं, वह या तो चिन्ता है या भावना।
५. पृथक्त्व वितर्क वीचार का स्वरूप
भ.आ./मू./१८८०, १८८२ दव्वाइं अणेयाइं ताहिं वि जोगेहिं जेणज्झायंति। उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तंत्ति तं भणिया।१८८०। अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं।१८८२। = इस पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान में अनेक द्रव्य विषय होते हैं और इन विषयों का विचार करते समय उपशान्त मोह मुनि इन मन वचन काय योगों का परिवर्तन करता है।१८८०। इस ध्यान में अर्थ के वाचक शब्द संक्रमण तथा योगों का संक्रमण होता है। ऐसे वीचारों (संक्रमणों का) का सद्भाव होने से इसे सवीचार कहते हैं। अनेक द्रव्यों का ज्ञान कराने वाला जो शब्द श्रुत वाक्य उससे यह ध्यान उत्पन्न होता है, इसलिए इस ध्यान का पृथक्त्ववितर्क सवीचार ऐसा नाम है।१८८२।
त.सू./९-४१-४४ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे।४१। वितर्क: श्रुतम् ।४३। वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्ति:।४४। = पहले के दो ध्यान एक आश्रय वाले, सवितर्क, और सवीचार होते हैं।४१। वितर्क का अर्थ श्रुत है।४३। अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति वीचार है।४४। भावार्थ-पृथक्त्व अर्थात् भेद रूप से वितर्क श्रुत का वीचार अर्थात् संक्रान्ति जिस ध्यान में होती है वह पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम का ध्यान है। (ध.१३/५,४,२६/७७/११); (क.पा.१/१,१७/३१२/३४४/६); (ज्ञा./४२/१३,२०-२२)।
स.सि./९/४४/४५६/१ तत्र द्रव्यपरमाणुं भावपरमाणुं वा ध्यायन्नाहितवितर्कसामर्थ्य: अर्थव्यञ्जने कायवचसी च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसापर्याप्तबालोत्साहवदव्यवस्थितेनानिशितेनापि शस्त्रेण चिरात्तरुं छिन्दन्निव मोहप्रकृतीरुपशमयन्क्षपयंश्च पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानभाग्भवति। [पुनर्वीर्यविशेषहानेर्योगाद्योगान्तरं व्यञ्जनाद्वयञ्जनान्तरमर्थादर्थान्तरमाश्रयन् ध्यानविधूतमोहरजा: ध्यानयोगान्निवर्तते इति। पृथक्त्ववितर्कवीचारम् [रा.वा.]। =जिस प्रकार अपर्याप्त उत्साह से बालक अव्यवस्थित और मौथरे शस्त्र के द्वारा भी चिरकाल में वृक्ष को छेदता है उसी प्रकार चित्त की सामर्थ्य को प्राप्त कर जो द्रव्यपरमाणु और भावपरमाणु का ध्यान कर रहा है वह अर्थ और व्यंजन तथा काय और वचन में पृथक्त्वरूप से संक्रमण करने वाले मन के द्वारा मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम और क्षय करता हुआ पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान को धारण करने वाला होता है। फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और अर्थ से अर्थान्तर को प्राप्त कर मोहरज का विधूननकर ध्यान से निवृत्त होता है यह पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान है। (रा.वा./९/४४/१/६३४/२५); (म.पु./२१/१७०-१७३)।
ध.१३/५,६,२६/गा.५८-६०/७८ दव्वाइमणेगाइं तीहि वि जोगेहि जेण ज्झायंति। उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं ति तं भणितं।५८। जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्थकुसलो य। ज्झायदि ज्झाणं एदंसविदक्कं तेण तं ज्झाणं।५९। अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स य भावेण तगं सुत्ते उत्तं सवीचारं।६०।
ध.१३/५,४,२६/७८/८ एकदव्वं गुणपज्जायं वा पढमसमए बहुणयगहणणिलीणं सुदरविकिरणुज्जोयवलेण ज्झाएदि। एवं तं चेव अंतोमुहुत्तमेत्तकालं ज्झाएदि। तदो परदो अत्थंतरस्स णियमा संकमदि। अधवा तम्हि चेव अत्थे गुणस्स पज्जयस्स वा संकमदि। पुव्विल्लजोगाजोगोगंतरं पिसिया संकमदि। एगमत्थमत्थंतरं गुणगुणंतरं पज्जाय-पज्जायंतरं च हेट्ठोवरि ट्ठविय पुणो तिण्णि जोगे एगपंतीए ठविय दुसंजोग-तिसजोगेहि एत्थं पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणभंगा बादालीस।४२। उप्पाएदव्वा। एवमंतोमुहुत्तकालमुवसंतकसाओ सुक्कलेस्साओ पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणं छदव्व-णवपयत्थविसयमंतोमुहुत्तकालं ज्झायइ। अत्थदो अत्थंतरसंकमे संति वि ण ज्झाण विणासो, चित्तंतरगमणाभावादो। = १. यत: उपशान्त मोह जीव अनेक द्रव्यों का तीनों ही योगों के आलम्बन से ध्यान करते हैं इसलिए उसे पृथक्त्व ऐसा कहा है।५८। यत: वितर्क का अर्थ श्रुत है और यत: पूर्वगत अर्थ में कुशल साधु ही इस ध्यान को ध्याते हैं, इसलिए इस ध्यान को सवितर्क कहा है।५९। अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रम वीचार है। जो ऐसे संक्रम से युक्त होता है उसे सूत्र में सविचार कहा है।६०। (त.सा./७/४५-४७)। २. इसका भावार्थ कहते हैं...एक द्रव्य या गुण-पर्याय को श्रुत रूपी रविकिरण के प्रकाश के बल से ध्याता है। इस प्रकार उसी पदार्थ को अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है। इसके बाद अर्थान्तर पर नियम से संक्रमित होता है। अथवा उसी अर्थ के गुण या पर्याय पर संक्रमित होता है। और पूर्व योग से स्यात् योगान्तर पर संक्रमित होता है इस तरह एक अर्थ-अर्थान्तर, गुण-गुणान्तर और पर्याय-पर्यायान्तर को नीचे ऊपर स्थापित करके फिर तीन योगों को एक पंक्ति में स्थापित करके द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी की अपेक्षा यहाँ पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान के ४२ भंग उत्पन्न करना चाहिए। इस प्रकार शुक्ललेश्या वाला उपशान्तकषाय जीव छह द्रव्य और नौ पदार्थ विषयक पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान को अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है। अर्थ से अर्थान्तर का संक्रम होने पर भी ध्यान का विनाश नहीं होता, क्योंकि इससे चिन्तान्तर में गमन नहीं होता। (चा.सा./२०४/१)।
द्र.सं./टी./४८/२०३/६ पृथक्त्ववितर्कविचारं तावत्कथ्यते। द्रव्यगुणपर्यायाणां भिन्नत्वं पृथक्त्वं भण्यते, स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भावश्रुत तद्वाचकमन्तर्जल्पवचनं वा वितर्को भण्यते, अनीहितवृत्त्यार्थान्तरपरिणमनम् वचनाद्वचनान्तरपरिणमनम् मनोवचनकाययोगेषु योगाद्योगान्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते। अयमत्रार्थ:-यद्यपि ध्याता पुरुष: स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिन्तां न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पा: स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानं भण्यते। = द्रव्य, गुण और पर्याय के भिन्नपने को पृथक्त्व कहते हैं। निजशुद्धात्मा का अनुभव रूप भावश्रुत को और निजशुद्धात्मा को कहने वाले अन्तर्जल्परूप वचन को ‘वितर्क’ कहते हैं। इच्छा बिना ही एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक वचन से दूसरे वचन में, मन वचन और काय इन तीनों योगों में से किसी एक योग से दूसरे योग में जो परिणमन है, उसको वीचार कहते हैं। इसका यह अर्थ है-यद्यपि ध्यान करने वाला पुरुष निज शुद्धात्म संवेदन को छोड़कर बाह्य पदार्थों की चिन्ता करता, तथापि जितने अंशों से स्वरूप में स्थिरता नहीं है उतने अंशों से अनिच्छित वृत्ति से विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यान को पृथक्त्व वितर्क वीचार कहते हैं।
६. एकत्व वितर्क अवीचार का स्वरूप
भ.आ./मू./१८८३/१६८६ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेगेण अण्णदरेण। खीणकसायो ज्झायदि तेणेगत्तं तयं भणियं।१८८३। = इस ध्यान के द्वारा एक ही योग का आश्रय लेकर एक ही द्रव्य का ध्याता चिन्तन करता है। इसलिए इसको एकत्व वितर्क ध्यान कहा गया है।१८८३।
स.सि./९/४४/४५६/४ स एव पुन: समूलतूलं मोहनीयं निर्दिधक्षन्ननन्तगुण विशुद्धियोगविशेषमाश्रित्य बहुतराणां ज्ञानावरणीय सहायीभूतानां प्रकृतीनां बन्धं निरुन्धन् स्थितिं ह्नासक्षयौ च कुर्वन् श्रुतज्ञानोपयोगो निवृत्तार्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्ति: अविचलितमना: क्षीणकषायो वैडूर्यमणिरिव निरुपलेपो ध्यात्वा पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम् । = पुन: जो समूल मोहनीय कर्म का दाह करना चाहता है, जो अनन्तगुणी विशुद्धि विशेष को प्राप्त होकर बहुत प्रकार की ज्ञानावरणी की सहायभूत प्रकृतियों के बन्ध को रोक रहा है, जो कर्मों की स्थिति को न्यून और नाश कर रहा है, जो श्रुतज्ञान के उपयोग से युक्त है, जो अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति से रहित है। निश्चलमन वाला है, क्षीणकषाय है और वैडूर्यमणि के समान निरुपलेप है,...इस प्रकार एकत्व वितर्क ध्यान कहा गया है। (रा.वा./९/४४/१/६३४/३१)।
ध.१३/५,४,२६/गा.६१-६३/७९ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेक्केण अण्णदरएण। खीणकसाओ ज्झायइ तेणेयत्तं तगं भणिदं।६१। जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्थकुसलो य। ज्झायदि झाणं एदं सविदक्कं तेण तज्झाणं।६२। अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु विचारो। तस्स अभावेण तगं ज्झाणमवीचारमिदि वुत्तं।६३।
ध.१३/५,४,२६/८०/१ णवपयत्थेसु दव्व-गुण-पज्जयथं दव्व-गुण-पज्जयभेदेण ज्झाएदि, अण्णदरजोगेण अण्णदराभिधाणेण य तत्थ एगम्हि दव्वे गुणे पज्जाए वा मेरुमहियरोव्व णिच्चलभावेण अवट्ठियचित्तस्स असंखेज्जगुणसेडीए कम्मक्खंधे मालयंतस्स अणंतगुणहीणाए सेडीए कम्माणुभागं सोसयंतस्स कम्माणं ट्ठिदोयो एगजोगएगाभिहाणज्झाणेण घादयंतस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालो गच्छति तदो सेसखीणकसायद्धमेत्तट्ठिदीयो मोत्तूण उवरिमसव्वट्ठिदियो घेत्तूण उदयादिगुणसेडिसरूवेण रचिय पुणो ट्ठिदिखंडएण विणा अधट्ठिदिगलणेण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मक्खंधे घादंतो गच्छति जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति। तत्थ खीणकसायचरिमसमए णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयाणि विणासेदि। एदेसु णिट्ठेसु केवलणाणी केवलदंसणी अणंतवीरियो दाण-लाह-भोगुव-भोगेसु विग्घवज्जियो होदि त्ति घेत्तव्वं। = १. यत: क्षीणकषाय जीव एक ही द्रव्य का किसी एक योग के द्वारा ध्यान करता है, इसलिए उस ध्यान को एकत्व कहा है।६१। यत: वितर्क का अर्थ श्रुत है और इसलिए पूर्वगत अर्थ में कुशल साधु इस ध्यान का ध्याता है, इसलिए इस ध्यान को सवितर्क कहा है।६२। अर्थ, व्यंजन और योगों के संक्रम का नाम वीचार है। यत: उस विचार के अभाव से यह ध्यान अवीचार कहा है।६३। (त.सा./७/४८-५०); (क.पा.१/१,१७/३१२/३४४/१५); (ज्ञा./४२/१३-१९)। २. जो जीव नौ पदार्थों में से किसी एक पदार्थ का द्रव्य, गुण और पर्याय के भेद से ध्यान करता है। इस प्रकार किसी एक योग और एक शब्द के आलम्बन से वहाँ एक द्रव्य, गुण या पर्याय में मेरु पर्वत के समान निश्चल भाव से अवस्थित चित्तवाले, असंख्यात गुणश्रेणि क्रम से कर्मस्कन्धों को गलाने वाले, अनन्त गुणहीन श्रेणिक्रम से कर्मों के अनुराग को शोषित करने वाले और कर्मों की स्थितियों को एक योग तथा एक शब्द के आलम्बन से प्राप्त हुए ध्यान के बल से घात करने वाले उस जीव का अन्तर्मुहूर्त काल रह जाता है। तदनन्तर शेष रहे क्षीणकषाय के काल का प्रमाण स्थितियों को छोड़कर उपरिम सब स्थितियों की उदयादि श्रेणि रूप से रचना करके पुन: स्थिति काण्डक घात के बिना अध:स्थिति गलना आदि ही असंख्यात गुणश्रेणि क्रम से कर्म स्कन्धों का घात करता हुआ क्षीणकषाय के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक जाता है। वहाँ क्षीण कषाय के अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय का घात करके केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, अनन्तवीर्यधारी तथा दान-लाभ-भोग व उपभोग के विघ्न से रहित होता है। (चा.सा./२०६/३)।
द्र.सं./टी./४८/२०४/४ निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याये वा निरुपाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रैकस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतबलेन स्थिरीभूयावीचारं गुणद्रव्यपर्यायपरावर्तनं न करोति यत्तदेकत्ववितर्कवीचारसंज्ञे क्षीणकषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयं शुक्लध्यानं भण्यते। तेनैव केवलज्ञानोत्पत्ति: इति। = निज शुद्धात्म द्रव्य में या विकार रहित आत्मसुख अनुभवरूप पर्याय में, या उपाधि रहित स्व संवेदन गुण में इन तीनों में से जिस एक द्रव्य गुण या पर्याय में प्रवृत्त हो गया और उसी में वितर्क नामक निजात्मानुभवरूप भाव श्रुत के बल से स्थिर होकर अवीचार अर्थात् द्रव्य गुण पर्याय में परावर्तन नहीं करता वह एकत्व वितर्क नामक गुणस्थान में होने वाला दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है जो कि केवल ज्ञान की उत्पत्ति का कारण है।
७. सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती का स्वरूप
भ.आ./मू./१८८६-१८८७ अवितक्कमवीचारं सुहुमकिरियबंधणं तदियसुक्कं। सुहुमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं।१८८६। सुहमम्मि कायजोगे वट्टंतो केवली तदियसुक्कम् । झायदि णिरुंभिदुंजे सुहुमत्तणकायजोगंपि।१८८७। = वितर्क रहित, अवीचार, सूक्ष्म क्रिया करने वाले आत्मा के होता है। यह ध्यान सूक्ष्म काय योग से है।१८८६। प्रवृत्त होता है। त्रिकाल विषयक पदार्थों को युगपद् प्रगट करने वाला इस सूक्ष्म काययोग में रहने वाले केवली इस तृतीय शुक्लध्यान के धारक हैं। उस समय सूक्ष्म काययोग का वे निरोध करते हैं।१८८७। (भ.आ./मू./२११९), (ध.१३/५,४,२६/गा.७२-७३/८३), (त.सा./७/५१-५२), (ज्ञा./४२/५१)।
स.सि./९/४४/४५६/८ एवमेकत्ववितर्कशुक्लध्यानवैश्वानरनिर्दग्धवातिकर्मेन्धन...स यदान्तर्मुहूर्तशेषायुष्क:...तदा सर्वं वाङ्मनसयोगं बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाययोगालम्बन: सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानमास्कन्दितुमर्हतीति।...समीकृतस्थितिशेषकर्मचतुष्टय: पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति। = इस प्रकार एकत्व वितर्क शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा जिसने चार घातिया कर्म रूपी ईंधन को जला दिया है।...वह जब आयु कर्म में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है...तब सब प्रकार के वचन योग, मनोयोग, और बादर काययोग को त्यागकर सूक्ष्म काययोग का आलम्बन लेकर सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान को स्वीकार करते हैं। परन्तु जब उनकी सयोगी जिनकी आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है।...तब (समुद्घात के द्वारा) चार कर्मों की स्थिति को समान करके अपने पूर्व शरीर प्रमाण होकर सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ध्यान को स्वीकार करते हैं (रा.वा./९/४४/१/६३५/१), (ध.१३/५,४,२६/८३-८६/१२), (चा.सा./२०७/३)।
ध.१३/५,४,२६/८३/२ संपहि तदिय सुक्कज्झाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-क्रिया नाम योग:। प्रतिपतितुं शीलं यस्य तत्प्रतिपाति। तत्प्रतिपक्ष: अप्रतिपाति। सूक्ष्मक्रिया योगी यस्मिन् तत्सूक्ष्मक्रियम् । सूक्ष्मक्रियं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । केवलज्ञानेनापसारितश्रुतज्ञानत्वात् तदवितर्कम् । अर्थान्तरसंक्रान्त्यभावात्तदवीचारं व्यञ्जन-योगसंक्रान्त्यभावाद्वा। कथं तत्संक्रान्त्यभाव:। तदवष्टम्भबलेन विना अक्रमेण त्रिकालगोचराशेषावगते:। = अब तीसरे शुक्ल ध्यान का कथन करते हैं यथा-क्रिया का अर्थ योग है वह जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है, और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है। जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है, और सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। (द्र.सं./टी./४८/२०४/८) यहाँ केवलज्ञान के द्वारा श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है, इसलिए यह अवितर्क है और अर्थांतर की संक्रान्ति का अभाव होने से अवीचार है, अथवा व्यंजन और योग की संक्रान्ति का अभाव होने से अविचार है। प्रश्न-इस ध्यान में इनकी संक्रान्ति का अभाव कैसे है ? उत्तर-इनके अवलंबन के बिना ही युगपत् त्रिकाल गोचर अशेष पदार्थों का ज्ञान होता है।
८. समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति का स्वरूप
भ.आ./मू./१८८८,२१२३ अवियक्कमवीचारं अणियट्टिमकिरियं च सीलेसिं। ज्झाणं णिरुद्धयोगं अपच्छिम उत्तमं सुक्कं।१८८८। देहतियबंधपरिमोक्खत्थं केवली अजोगी सो। उवयादि समुच्छिण्णकिरियं तु झाणं अपडिवादी।२१२३। = अन्तिम उत्तम शुक्लध्यान वितर्क रहित है, वीचार रहित है, अनिवृत्ति है, क्रिया रहित है, शैलेशी अवस्था को प्राप्त है और योग रहित है। (ध.१३/५,४,२६/गा.७७/८७) औदारिक शरीर, तैजस व कार्मण शरीर इन तीन शरीरों का बन्ध नाश करने के लिए वे अयोगिकेवली भगवान् समुच्छिन्न क्रिया निवृत्त नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याते हैं (त.सा./७/५३-५४)।
स.सि./९४४/४५७/६ ततस्तदनन्तरं समुच्छिन्नक्रियानिर्वत्तिध्यानमारभते। समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगसर्वप्रदेशपरिस्पन्दक्रियाव्यापारत्वात् समुच्छिन्ननिवृत्तीत्युच्यते। = इसके बाद चौथे समुच्छिन्न क्रिया निवृति ध्यान को प्रारम्भ करते हैं। इसमें प्राणापान के प्रचार रूप क्रिया का तथा सब प्रकार के काययोग वचनयोग और मनोयोग के द्वारा होने वाली आत्मप्रदेश परिस्पन्द रूप क्रिया का उच्छेद हो जाने से इसे समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान कहते हैं (रा.वा./९/४४/१/६३५/११), (चा.सा./२०९/३)।
ध.१३/५,४,२६/८७/६ समुच्छिन्नक्रिया योगो यस्मिन् तत्समुच्छिन्नक्रियम् । समुच्छिन्नक्रियं च अप्रतिपाति च समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । श्रुतरहितत्वात् अवितर्कम् । जीवप्रदेशपरिस्पन्दाभावादवीचारं अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्त्यभावाद्वा। = जिसमें क्रिया अर्थात् योग सब प्रकार से उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्न क्रिय है और समुच्छिन्न क्रिया होकर जो अप्रतिपाती है वह समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यान है। यह श्रुतज्ञान से रहित होने के कारण अवितर्क है, जीव प्रदेशों के परिस्पन्द का अभाव होने से अविचार है, या अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति के अभाव होने से अविचार है।
द्र.सं./टी./४८/२०४/९ विशेषेणोपरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद्व्युपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्तकं च तद् व्युपरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञंचतुर्थशुक्लध्यानं। = विशेष रूप से उपरत अर्थात् दूर हो गयी है क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति हो वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्लध्यान है।