शुक्लध्यान शंका-समाधान
From जैनकोष
शंका समाधान
१. संक्रान्ति रहते ध्यान कैसे सम्भव है
स.सि./९/४४/४५५/१३ की टिप्पणी-संक्रान्तौ सत्यां कथं ध्यानमिति चेत् ध्यानसंतानमपि ध्यानमुच्यते इति न दोष:। = प्रश्न-संक्रान्ति के होने पर ध्यान कैसे सम्भव है ? उत्तर-ध्यान की सन्तति को भी ध्यान कहा जाता है इसमें कोई दोष नहीं है।
रा.वा./९/२७/१९,२१/६२६-६२७/३५ अथमेतत्-एकप्रवचनेऽपि तस्यानिष्टस्य प्रसङ्गतुल्य इति; तन्न; किं कारणम् । आभिमुख्ये सति पौन: पुन्येनापि प्रवृत्तिज्ञापनार्थत्वात् । अग्रं मुखमिति ह्युच्यमानेऽनेकमुखत्वं निवर्तितं एकमुखे तु संक्रमोऽभ्युपगत एवेति नानिष्टप्राप्ति:।१९। अथवा अङ्गतीत्यग्रमात्मेत्यर्थ:। द्रव्यार्थतयैकस्मिन्नात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम्। तत: स्ववृत्तित्वात् बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा निवर्त्तिता भवति।२१। = प्रश्न-यदि ध्यान में अर्थ व्यंजन योग की संक्रान्ति होती है तो ‘एकाग्र’ वचन कहने में भी अनिष्ट का प्रसंग समान ही है ? उत्तर-ऐसा नहीं; क्योंकि अपने विषय के अभिमुख होकर पुन: पुन: उसी में प्रवृत्ति रहती है। अग्र का अर्थ मुख्य होता है, अत: ध्यान अनेकमुखी न होकर एकमुखी रहता है और उस मुख में ही संक्रम होता रहता है। अथवा ‘अङ्गतीति अग्रम् आत्मा’ इस व्युत्पत्ति में द्रव्यरूप से एक आत्मा को लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य चिन्ताओं से निवृत्ति होती है।
ध.१३/५,४,२६/गा.५२/७६ अंतोमुहुत्तपरदो चिंता-ज्झाणंतरं व होज्जाद्धि। सुचिरं पि होज्ज बहुवत्थुसं कमे ज्झाणसंताणो।५२।
ध.१३/५,४,२६/७५/५ अत्थंतरसंचाले संजादे वि चित्तंतरगमणाभावेण ज्झाणविणासाभावादो। = १. अन्तर्मुहूर्त के बाद चिन्तान्तर या ध्यानान्तर होता है, या चिरकाल तक बहुत पदार्थों का संक्रम होने पर भी एक ही ध्यान सन्तान होती है।५२। २. अर्थान्तर में गमन होने पर भी एक विचार से दूसरे विचार में गमन नहीं होने से ध्यान का विनाश नहीं होता।
ज्ञा./४२/१८ अर्थादिषु यथा ध्यानी संक्रामत्यविलम्बितम् । पुनर्व्यावर्त्तते तेन प्रकारेण स हि स्वयम् ।१८। = जो ध्यानी अर्थ व्यंजन आदि योगों में जैसे शीघ्रता से संक्रमण करता है, वह ध्यानी अपने आप उसी प्रकार लौट आता है।
प्र.सा./ता.वृ./१०४/२६२/१२ अल्पकालत्वात्परावर्त्तनरूपध्यानसंतानो न घटते। = अल्प काल होने से ध्यान सन्तति की प्रतीति नहीं होती।
भा.पा./टी./७८/२२७/२१ यद्यप्यर्थव्यञ्जनादिसंक्रान्तिरूपतया चलनं वर्तते तथापि इदं ध्यानं। कस्मात् । एवंविधस्यैवास्य विवक्षितत्वात् । विजातीयानेकविकल्परहितस्य अर्थादिसंक्रमेण चिन्ताप्रबन्धस्यैव एतद्धयानत्वेनेष्टत्वात् । अथवा द्रव्यपर्यायात्मनो वस्तुन एकत्वात् सामान्यरूपतया व्यञ्जनस्य योगानां चैकीकरणादेकार्थचिन्तानिरोधोऽपि घटते। द्रव्यात्पर्यायं व्यञ्जनाद्वयञ्जनान्तरं योगाद्योगान्तरं विहाय अन्यत्र चिन्तावृत्तौ अनेकार्थता न द्रव्यादे: पर्यायादौ प्रवृत्तौ। = यद्यपि पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान में योग की संक्रान्ति रूप से चंचलता वर्तती है फिर भी यह ध्यान ही है क्योंकि इस ध्यान में इसी प्रकार की विवक्षा है और विजातीय अनेक विकल्पों से रहित तथा अर्थादि के संक्रमण द्वारा चिन्ता प्रबन्धक इस ध्यान के ध्यानपना इष्ट है। अथवा क्योंकि द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में एकपना पाया जाता है इसलिए व्यंजन व एकीकरण हो जाने से एकार्थ चिन्ता निरोध भी घटित हो जाता है। द्रव्य से पर्याय, व्यंजन से व्यंजनान्तर और योग से योगान्तर इन प्रकारों को छोड़कर अन्यत्र चिन्तावृत्ति में अनेकार्थता या द्रव्य व पर्याय आदि में प्रवृत्ति नहीं है।
प.ध./उ./८४९-८५१ ननु चति प्रतिज्ञा स्यादर्थादर्थान्तरे गति:। आत्मनोऽन्यत्र तत्रास्ति ज्ञानसंचेतनान्तरम् ।८४९। सत्यं हेतोर्विपक्षत्वे वृत्तित्वाद् व्यभिचारिता। यतोऽत्रान्यात्मनोऽन्यत्र स्वात्मनि ज्ञानचेतना।८५०। किंच सर्वस्य सद्दृष्टेर्नित्यं स्याज्ज्ञानचेतना। अव्युच्छिन्नप्रवाहेण यद्वाखण्डैकधारया।८५१। = प्रश्न-यदि ज्ञान का संक्रमणात्मकपना ज्ञानचेतना बाधक नहीं है तो ज्ञान चेतना में भी मतिज्ञानपने के कारण अर्थ से अर्थान्तर संक्रमण होने पर आत्मा के इतर विषयों में भी ज्ञानचेतना का उपयोग मानना पड़ेगा ? उत्तर-ठीक है कि हेतु की विपक्ष में वृत्ति होने से उसमें व्यभिचारीपना आता है। क्योंकि परस्वरूप परपदार्थ से भिन्न अपने इस स्वात्मा में ज्ञान चेतना होती है। तथा सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टियों के धारा प्रवाह में अथवा अखण्ड धारा से ज्ञान चेतना होती है।
२. योग संक्रान्ति का कारण
रा.वा.हिं./९/४४/७५८ उपयोग क्षयोपशम रूप है सो मन के द्वारा होय प्रवर्ते है। सो मन का स्वभाव चंचल है। एक ज्ञेय में ठहरे नाहीं। याही तै इस पहिले ध्यान विषै, अर्थ व्यंजन योग के विषय उपयोग की पलटनी बिना इच्छा होय है।
३. योग संक्रान्ति बन्ध का कारण नहीं रागादि हैं
पं.ध./उ./८८० व्याप्तिर्बन्धस्य रागाद्यैर्नाव्याप्तिविकल्पैरिव। विकल्पैरस्य चाव्याप्ति न व्याप्ति: किल तैरिव।८८०। = रागादि भावों के साथ बन्ध की व्याप्ति है किन्तु जैसे ज्ञान के विकल्पों के साथ अव्याप्ति है वैसे ही रागादि के साथ बन्ध की अव्याप्ति नहीं, अर्थात् विकल्पों के साथ इस बन्ध की अव्याप्ति ही है, किन्तु रागादि के साथ जैसी बन्ध की व्याप्ति है ऐसी बन्ध के विकल्पों के साथ व्याप्ति नहीं हैं।८८०।