श्रीपाल
From जैनकोष
- म.पु./सर्ग/श्लोक - पूर्व विदेह में पुण्डरीकिणी नगरी का राजा था (४७/३-४)। पिता गुणपाल के ज्ञानकल्याणक में जाते समय मार्ग में एक विद्याधर घोड़ा बनकर उड़ाकर ले गया, जाकर वन में छोड़ा (४७/२०) घूमते-घूमते विदेश में अनेकों अवसरों व स्थानों पर कन्याओं से विवाह करने के प्रसंग आये परन्तु 'मैं माता आदि गुरुजन के द्वारा प्रदत्त कन्या के अतिरिक्त अन्य कन्या से भोग न करूँगा' इस प्रतिज्ञा के अनुसार सबको अस्वीकार कर दिया (४५/२८-१५०)। इसके अनन्तर पूर्वभव की माता यक्षी द्वारा प्रदत्त चक्र, दण्ड, छत्र आदि लेकर, उनके प्रभाव से पिता के समवशरण में पहुँचा (४७/१६०-१६३)। इसके अनन्तर चक्रवर्ती के भोगों का अनुभव किया (४७/१७३)। अन्त में दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया (४७/४४-४९)।
- चम्पापुर नगर के राजा अरिदमन का पुत्र था। मैना सुन्दरी से विवाहा गया। कोढ़ी होने पर मैना सुन्दरी कृत सिद्धचक्र विधान के गन्धोदक से कुष्ठ रोग दूर हुआ। विदेश में एक विद्याधर से जलतरंगिणी व शत्रु निवारिणी विद्या प्राप्त की। धवल सेठ के रुके हुए जहाजों को चोरों से छुड़ाया। इनको रैनमंजूषा नामक कन्या की प्राप्ति होने पर धवल सेठ उस पर मोहित हो गया और इनको समुद्र में गिरा दिया। तब ये लकड़ी के सहारे तिरकर कुंकुमद्वीप में गये। वहाँ पर गुणमाला कन्या से विवाह किया। परन्तु धवल सेठ के भाटों द्वारा इनकी जाति भाण्ड बता दी जाने पर इनको सूली की सजा मिली। तब रैनमंजूषा ने इनको छुड़ाया। अन्त में दीक्षा ग्रहणकर मोक्ष प्राप्त किया (श्रीपाल चरित्र)।
- पंचस्तूप संघ में वीरसेन स्वामी (ई.७७०-८२७) के शिष्य और जिनसेन (ई.८१८-८७८) के सधर्मा। समय - (लगभग ई.८००-८४३) वि.श.९। (ती./२/४५२) ( देखें - इतिहास / ७ / ७ )।
- द्रविड़ संघी गोणसेन के शिष्य और देवकीर्ति पण्डित के गुरु। अनन्तवीर्य के सधर्मा। समय - ई.९७५-१०२५। (सि.वि./प्र./७७/पं.महेन्द्र)।
- एक राजा जिनके निमित्त नेमिचन्द्र सिद्धान्तिकदेव ने द्रव्य संग्रह की रचना की थी। समय - वि.११००-११४० (ई.१०४३-१०८३) (ज्ञा./प्र.२/पं.पन्नालाल)।